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"वो ही तूफानों से बचते हैं, निकल जाते हैं / श्रद्धा जैन" के अवतरणों में अंतर
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11:32, 15 दिसम्बर 2010 का अवतरण
हश्र औरों का समझ कर जो संभल जाते हैं
वो ही तूफानों से बचते हैं, निकल जाते हैं
मैं जो हंसती हूँ तो ये सोचने लगते हैं सभी
ख्वाब किस-किस के हक़ीक़त में बदल जाते हैं
जिंदगी, मौत, जुदाई और मिलन एक जगह
एक ही रात में कितने दिए जल जाते हैं
आदत अब हो गई तन्हाई में जीने की मुझे
उनके आने की खबर से भी दहल जाते हैं
हमको ज़ख्मों की नुमाइश का कोई शौक नहीं
मेरी गजलों में मगर आप ही ढल जाते हैं