भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ऎ शरीफ़ इन्सानो ! / साहिर लुधियानवी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो (नया पृष्ठ: '''ऐ शरीफ इंसानों''' खून आपना हो या पराया हो ,नसल-ऐ-आदम का खून है आख़ि…)
 
(कोई अंतर नहीं)

20:12, 21 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण

ऐ शरीफ इंसानों


खून आपना हो या पराया हो

,नसल-ऐ-आदम का खून है आख़िर,

जंग मशरिक में हो या मगरिब में ,

अमन-ऐ-आलम का खून है आख़िर !


बम घरों पर गिरे की सरहदपर , 

रूह-ऐ-तामीर जख्म खाती है !

खेत अपने जले की औरोंके ,

जस्ति फ़ाकोंसे तिलमिलाती है !


टैंक आगे बढे की पीछे हटे,
कोख धरतीकी बौझ होती है !
फतह का जश्न हो की हारका सोग,
जिंदगी मय्यतोंपे रोंती है  !


जंग तो खुदही एक मसलआ है

जंग क्या मसलोंका हल देगी ?

आग और खून आज बख्शेगी

भूख और एहतयाज कल देगी !        


इसलिए ऐ शरीफ इंसानों ,

जंग टलती है तो बेहतर है !

आप और हम सभी के आँगन में ,

शमा जलती रहे तो बेहतर है  !