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"वो ही तूफानों से बचते हैं, निकल जाते हैं / श्रद्धा जैन" के अवतरणों में अंतर

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हमको ज़ख़्मों की नुमाइश  का कोई शौक नहीं
 
हमको ज़ख़्मों की नुमाइश  का कोई शौक नहीं
मेरी ग़ज़लों में मगर आप ही ढल जाते हैं  
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कैसे ग़ज़लों में मगर आप ही ढल जाते हैं  
 
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09:11, 23 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण

हश्र औरों का समझ कर जो संभल जाते हैं
वो ही तूफ़ानों से बचते हैं, निकल जाते हैं

मैं जो हँसती हूँ तो ये सोचने लगते हैं सभी
ख़्वाब किस-किस के हक़ीक़त में बदल जाते हैं

ज़िंदगी, मौत, जुदाई और मिलन एक जगह
एक ही रात में कितने दिए जल जाते हैं

आदत अब हो गई तन्हाई में जीने की मुझे
उनके आने की ख़बर से भी दहल जाते हैं

हमको ज़ख़्मों की नुमाइश का कोई शौक नहीं
कैसे ग़ज़लों में मगर आप ही ढल जाते हैं