"रेल के सपने / पाब्लो नेरूदा" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पाब्लो नेरूदा |संग्रह= }} <Poem> बिना रखवाली के स्टे…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatKavita}} | |
<Poem> | <Poem> | ||
बिना रखवाली के स्टेशनों पर | बिना रखवाली के स्टेशनों पर | ||
पंक्ति 26: | पंक्ति 26: | ||
उगती बुझती उदासियों पर । | उगती बुझती उदासियों पर । | ||
गाड़ी में छूट गईं कुछ आत्माएँ, | गाड़ी में छूट गईं कुछ आत्माएँ, | ||
− | जैसे | + | जैसे चाभियाँ थीं बिन तालों की, |
सीट के नीचे गिरी हुईं । | सीट के नीचे गिरी हुईं । | ||
पंक्ति 60: | पंक्ति 60: | ||
अकेली रेल में अकेला-सा मैं, | अकेली रेल में अकेला-सा मैं, | ||
− | लेकिन | + | लेकिन सिर्फ़ मैं ही नहीं अकेला |
बल्कि मेरे साथ अनगिन अकेलेपन | बल्कि मेरे साथ अनगिन अकेलेपन | ||
सफ़र की शुरूआत की आस लगाए | सफ़र की शुरूआत की आस लगाए |
03:04, 29 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण
बिना रखवाली के स्टेशनों पर
सोती हुई रेलगाड़ियाँ
अपने इंजनों से दूर
सपनों में खोई थीं ।
भोर के वक़्त मैं दाख़िल हुआ
टहलता, हिचकिचाता
मानो भेदता कोई तिलिस्म
चारों ओर बिखरी थी यात्रा की मरती गंध
और मैं खोजता हुआ कुछ
डिब्बों में छूट गई चीज़ों के बीच ।
जा चुकी देहों की भीड़ में
निपट अकेला था मैं,
ठहरी थी रेलगाड़ी ।
हवा की सांद्रता
अवरोध की महीन पर्त थी
अधूरी रह गई बातों और
उगती बुझती उदासियों पर ।
गाड़ी में छूट गईं कुछ आत्माएँ,
जैसे चाभियाँ थीं बिन तालों की,
सीट के नीचे गिरी हुईं ।
फूलों के गुच्छे और मुर्गियों के सौदे से लदीं,
दक्षिण से आई औरतें
जो शायद मार डाली गई थीं,
जो शायद वापस लौटकर बिलखती भी रहीं थीं,
शायद बेकार चले गए थे सफ़र में खर्च उनके भाड़े
उनकी चिताओं की आग के साथ,
शायद मैं भी उनके ही साथ हूँ, उन्हीं के सफ़र में,
यात्रा में छूटी उनकी देहों की भाप,
और गीली पटरियाँ,
सब कुछ यथावत हैं शायद
रेल की स्थिरता में ।
मैं एक सोता हुआ यात्री
यक-ब-यक जाग गया हूँ
दुखों से सराबोर !
मैं बैठा रहा अपनी सीट पर
और रेलगाड़ी दौड़ती रही
मेरी देह की रहगुज़र
ढहाती हुई मेरे भीतर की सारी हदें -
यूँ अचानक, वह हो गई मेरे बचपन की रेल,
बिखरा धुआँ सुबहों का,
खट्टी-मीठी गर्मियाँ ।
बेतहाशा भागतीं, और भी थीं रेलगाडियाँ
दुखों से इस कदर लबालब थे उनके डिब्बे,
जैसे बजरियों से भरी मालगाड़ी,
तो इस तरह दौड़ती रही वह स्थिर रेलगाड़ी
सुबह के फैलते उजाले में
मेरी अस्थियों तक को दुखाती हुई ।
अकेली रेल में अकेला-सा मैं,
लेकिन सिर्फ़ मैं ही नहीं अकेला
बल्कि मेरे साथ अनगिन अकेलेपन
सफ़र की शुरूआत की आस लगाए
प्लेटफार्म पर बिखरे
गंवई लोगों सरीखे अकेलेपन।
और रेलगाड़ी में मैं,
जैसे एक ठहरा गुबार, धुएँ का
घिरा हुआ,
जाने कितनी मौतों के बाद की
जाने कितनी जड़ आत्माओं से !
मैं, गुम हो गया उस सफ़र में,
कि जिसमें ठहरी हुई है हर चीज़
मुझ अकेले के दिल के सिवाय ।
मूल स्पानी भाषा से अनुवाद : श्रीकान्त