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"रहने दे ज़िद मत कर नाहक मान भी जा / कुमार अनिल" के अवतरणों में अंतर

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(नया पृष्ठ: <poem>रहने दे ज़िद मत कर नाहक, मान भी जा मुझ पर है इस जग का भी हक़, मान भी …)
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20:49, 30 दिसम्बर 2010 का अवतरण

रहने दे ज़िद मत कर नाहक, मान भी जा
मुझ पर है इस जग का भी हक़, मान भी जा

तेरे मेरे सबके दिल में रहता है
इक नन्हा मासूम सा बालक मान भी जा

नहीं मिलेगी इस दुनिया में और कहीं
माँ के आँचल वाली ठंडक मान भी जा

इस दुनिया में सबको वो ही मिलता है
जो होता है जिसके लायक मान भी जा

ढाई आखर हों कबीर वाले जिसमे
नहीं मिलेगी अब वो पुस्तक मान भी जा

माना आँधी बहुत तेज है, फिर भी तू
बुझने मत दे आस का दीपक मान भी जा

तेरे दिल के दरवाजे पर , हलके से
देती है इक लड़की दस्तक मान भी जा

रूप जवानी , दौलत सब बेमानी हैं,
खा जाएगी वक्त की दीमक मान भी जा