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"शबे गम की सहर नहीं होती / कुमार अनिल" के अवतरणों में अंतर

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हर कोई पढ़ ले जिन्दगी की किताब
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इतनी भी मुख़्तसर नहीं होती

07:07, 2 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

शबे गम की सहर नहीं होती
जिन्दगी अब बसर नहीं होती

यूँ तो दुनिया नवाजती है हमें
क़द्र घर में मगर नहीं होती

क्या बताऊँ मैं कितना डरता हूँ
मेरी बेटी जो घर नहीं होती

हर कोई पढ़ ले जिन्दगी की किताब
इतनी भी मुख़्तसर नहीं होती