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छूट गये वनपाखी, रात के बसेरे
जाल धर निकल पडेपड़े, मगन मन मछेरे
पानी में संत चुप खडे खड़े उजले -उजले,
कौन सुनेगा मछली व्यर्थ किसे टेरे
कानों से टकराती सिसकियाँ नदी की,
पुरवा जब बहती है रोज रोज़ मुँह अंधेरे-अँधेरे
रोशनी कहाँ तुझसे हट कर ओरे ओ रे मन
ना चंदा के घर, ना सूरज के डेरे
जुडे जुड़े ही नहीं जिद्दीज़िद्दी, किसी वंदना में,कैसे समझाऊं समझाऊँ मैं हाँथों हाथों को मेरे
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