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सन्नाटा / कैलाश गौतम

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[[Category:{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कैलाश गौतम]][[Category:कविताएँ]]|संग्रह= [[Category:गीत]]}}{{KKCatNavgeet}}<poem>कलरव घर में नहीं रहा सन्नाटा पसरा है सुबह-सुबह ही सूरज का मुंह मुँह उतरा-उतरा है।  पानी ठहरा जहां, वहां परहै ।
पानी ठहरा जहाँ, वहाँ पर
पत्थर बहता है
 
अपराधी ने देश बचाया
हाक़िम कहता है
हाक़िम का भी अपराधी से रिश्ता गहरा है ।
हाकिम कहता है हाकिम का भी अपराधी से रिश्ता गहरा है।  हंसता हूं हँसता हूँ जब तुम कबीर की 
साखी देते हो
 
पैर काटकर लोगों को
 वैसाखी बैसाखी देते हो दहशत में है  आम आदमी, तुमसे खतरा है।ख़तरा है ।
ठगा गया है आम आदमी
 
आया धोखे में
 घर में भूत जमाये जमाए डेरा 
देव झरोखे में
गूंगों की पंचायत करने वाला बहरा है ।
गूंगों की
 
पंचायत करने वाला बहरा है।
 
 
जैसा तुम बोओगे भाई!
जैसा तुम बोओगे भाई !
वैसा काटोगे
 
भैंसे की मन्नत माने हो
 
भैंसा काटोगे
 तेरी बारी है चोरी की, तेरा पहरा है।है ।</poem>
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