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"तुम ऐसी ही एक कली हो / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
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एक कली ऐसी होती है
जो अन्तस को
छू लेती है
स्वयं आप ही,
और गंध से भर देती है
स्वयं आप ही,
चाहे कोई रूप न माँगे-
गंध न माँगे।
तुम ऐसी ही एक कली हो!!
रचनाकाल: २७-०३-१९५८