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"किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब / नईम" के अवतरणों में अंतर

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:फिक्रमंद इन-उनकी ख़ातिर
 
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:समय रूक गया है पहाड़-सा
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:बजता कोई गजर नहीं है ।
 
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पहचाने खो गई हमारी
 
पहचाने खो गई हमारी
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जूड़े में अपनापन खोंसें ।
 
जूड़े में अपनापन खोंसें ।
  
:किसकी कुशल क्षेम पूछे अब,
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:किसको
 
:किसको
 
:अपनी पीर परोसें ।
 
:अपनी पीर परोसें ।
 
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12:27, 9 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब,
किसको
अपनी पीर परोसें ?
किसको कहाँ
असीसें भेजें
किस-किस की चुप्पी को कोसें ?

फिक्रमंद इन-उनकी ख़ातिर
अपनी ही गो ख़बर नहीं है ।
समय रुक गया है पहाड़-सा
बजता कोई गजर नहीं है ।
पहचाने खो गई हमारी
किनको छोड़ें, किन्हें भरोसें ?

रकबे बचे रह गए थे जो
इस सीलिंग, उस चकबंदी से,
लाख जतनकर बचा न पाए
हम एरावत औ’ नंदी से ।
रखवाले सो रहे तानकर -
प्रजातंत्र को कैसे दोषें ?

प्राणों पर बन आए उजागर
शरद, शिशिर हेमंतों के दिन,
विगर पूछते - हमसे बैठे
थानेदार बसंतों के दिन ।
अब न रहीं वो रितुएँ जिनके
जूड़े में अपनापन खोंसें ।

किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब,
किसको
अपनी पीर परोसें ।