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22:55, 9 जनवरी 2011 के समय का अवतरण
तुम
झूठ बोलते हो
जब
सच बोलने का साहस बटोरते हो
मगर
साहस हार जाता है
और शब्द
जो तुम बोलते हो
जमीन पर गिर पड़ते हैं
कोयले की तरह
बुझे-बुझे
और
लगी रह जाती है
मुँह के चारों ओर तुम्हारे
एक कलौंछ
देखकर जिसे
घृणा होती है तुमसे
और शर्म आती है
तुम्हारे आदमी होने पर
रचनाकाल: ०१-०९-१९७१