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आईने में
मुँह देखता है
घर का चाँद,
पीछे पीछे दुनिया
रात के
कंबल में
कैद पड़ी है।
तड़पती है
एक मछली
विकर्षण से आहत
अपने पानी के
समुद्र में।
सजा
भोगते हैं
प्यार के सपने
राख में दबे
निरुद्धार।
रचनाकाल: ११-०६-१९७२, मद्रास