"मैं प्रलय वह्नि का वाहक हूँ ! / मनुज देपावत" के अवतरणों में अंतर
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शोषित दल के उच्छवासों से, वह काँप रहा अवनी अम्बर ! | शोषित दल के उच्छवासों से, वह काँप रहा अवनी अम्बर ! | ||
− | उन अबलाओं की आहों से, जल रहा आज घर नगर -नगर ! | + | उन अबलाओं की आहों से, जल रहा आज घर नगर-नगर ! |
जल रहे आज पापों के पर, है फूट रहा भयकारी स्वर ! | जल रहे आज पापों के पर, है फूट रहा भयकारी स्वर ! | ||
− | इस महा मरण की वेला में त्यौहार मनाने आया हूँ ! | + | इस महा-मरण की वेला में त्यौहार मनाने आया हूँ ! |
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ ! | मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ ! | ||
− | आडम्बर के आगार बने, जिसके सारे ये मठ मंदिर ! | + | आडम्बर के आगार बने, जिसके सारे ये मठ-मंदिर ! |
पापों का प्रसव कर रहे हैं, जो काम वासना के सागर ! | पापों का प्रसव कर रहे हैं, जो काम वासना के सागर ! | ||
− | जिनमें भ्रूणों के गात गड़े, जो देख रहा है खड़े- खड़े ! | + | जिनमें भ्रूणों के गात गड़े, जो देख रहा है खड़े-खड़े ! |
उस पत्थर के परमेश्वर का अभिसार मिटाने आया हूँ ! | उस पत्थर के परमेश्वर का अभिसार मिटाने आया हूँ ! | ||
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ ! | मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ ! | ||
− | जो | + | जो मज़हब कहलाता, मानव को अत्याचार सिखाता है ! |
− | जिससे प्रेरित होकर भाई, भाई का | + | जिससे प्रेरित होकर भाई, भाई का ख़ून बहाता है ! |
− | जो पाखंडों से पलता है, शोषित ,दुर्बल को दलता है ! | + | जो पाखंडों से पलता है, शोषित, दुर्बल को दलता है ! |
उस प्रबल पाप के पुंज, धर्म की धूल बनाने आया हूँ ! | उस प्रबल पाप के पुंज, धर्म की धूल बनाने आया हूँ ! | ||
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ ! | मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ ! | ||
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दीनों की करुण कराहों का वह गूँज रहा अम्बर में स्वर ! | दीनों की करुण कराहों का वह गूँज रहा अम्बर में स्वर ! | ||
धन के घमंड से बने अंध, शासन के मद से जो मदांध ! | धन के घमंड से बने अंध, शासन के मद से जो मदांध ! | ||
− | सम्राटों का कर | + | सम्राटों का कर ख़ून, रक्त की धार बहाने आया हूँ ! |
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ ! | मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ ! | ||
मद मत्त हुआ अपनेपन में, जो भूल गया है मानवता ! | मद मत्त हुआ अपनेपन में, जो भूल गया है मानवता ! | ||
− | जो चूर हुआ है मत्सर में, जो क्रूर हुआ है दानव सा ! | + | जो चूर हुआ है मत्सर में, जो क्रूर हुआ है दानव-सा ! |
− | केवल अपने ही स्वार्थ काज, जो कुत्ता है बन गया आज ! | + | केवल अपने ही स्वार्थ-काज, जो कुत्ता है बन गया आज ! |
उस नर का कर संहार, भूमि का भार मिटाने आया हूँ ! | उस नर का कर संहार, भूमि का भार मिटाने आया हूँ ! | ||
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ ! | मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ ! | ||
− | जो धन के बल पर मोल रहा, निर्बल मानव की | + | जो धन के बल पर मोल रहा, निर्बल मानव की क़िस्मत को ! |
जो पैसों के बल तोल रहा, बेबस नारी की अस्मत को ! | जो पैसों के बल तोल रहा, बेबस नारी की अस्मत को ! | ||
− | पग से औरों को ठुकराकर, जो आगे बढ़ जाता | + | पग से औरों को ठुकराकर, जो आगे बढ़ जाता हँसकर ! |
मैं अब उसका अभिमान जला कर क्षार बनाने आया हूँ ! | मैं अब उसका अभिमान जला कर क्षार बनाने आया हूँ ! | ||
12:05, 12 जनवरी 2011 का अवतरण
मैं प्रलय वह्नि का वाहक हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !
शोषित दल के उच्छवासों से, वह काँप रहा अवनी अम्बर !
उन अबलाओं की आहों से, जल रहा आज घर नगर-नगर !
जल रहे आज पापों के पर, है फूट रहा भयकारी स्वर !
इस महा-मरण की वेला में त्यौहार मनाने आया हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !
आडम्बर के आगार बने, जिसके सारे ये मठ-मंदिर !
पापों का प्रसव कर रहे हैं, जो काम वासना के सागर !
जिनमें भ्रूणों के गात गड़े, जो देख रहा है खड़े-खड़े !
उस पत्थर के परमेश्वर का अभिसार मिटाने आया हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !
जो मज़हब कहलाता, मानव को अत्याचार सिखाता है !
जिससे प्रेरित होकर भाई, भाई का ख़ून बहाता है !
जो पाखंडों से पलता है, शोषित, दुर्बल को दलता है !
उस प्रबल पाप के पुंज, धर्म की धूल बनाने आया हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !
सत्ता का नंगा नाच हो रहा आज धरा की छाती पर !
दीनों की करुण कराहों का वह गूँज रहा अम्बर में स्वर !
धन के घमंड से बने अंध, शासन के मद से जो मदांध !
सम्राटों का कर ख़ून, रक्त की धार बहाने आया हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !
मद मत्त हुआ अपनेपन में, जो भूल गया है मानवता !
जो चूर हुआ है मत्सर में, जो क्रूर हुआ है दानव-सा !
केवल अपने ही स्वार्थ-काज, जो कुत्ता है बन गया आज !
उस नर का कर संहार, भूमि का भार मिटाने आया हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !
जो धन के बल पर मोल रहा, निर्बल मानव की क़िस्मत को !
जो पैसों के बल तोल रहा, बेबस नारी की अस्मत को !
पग से औरों को ठुकराकर, जो आगे बढ़ जाता हँसकर !
मैं अब उसका अभिमान जला कर क्षार बनाने आया हूँ !
मैं प्रलय वह्नि का वाहक हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !