भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"किसान / अभय मौर्य" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
  
 
आ धमका तभी इक मोटा लाला पिल-पिला,
 
आ धमका तभी इक मोटा लाला पिल-पिला,
टाँगते हुए लांगड़, आंगळी हिला-हिला ।
+
टाँगते हुए लाँगड़, आँगळी हिला-हिला ।
 
हमारी धरती में ऐंठ से बेंत गाड़ते हुए,
 
हमारी धरती में ऐंठ से बेंत गाड़ते हुए,
 
हट्टे-कट्टे लठैत साथ ले बाब्बू को ताड़ते हुए ।
 
हट्टे-कट्टे लठैत साथ ले बाब्बू को ताड़ते हुए ।
पंक्ति 19: पंक्ति 19:
 
खोला उन्हें जुए से गर्दन पकड़ते हुए ।
 
खोला उन्हें जुए से गर्दन पकड़ते हुए ।
 
खींच ज्योड़ों से की डंडों की बौछार,
 
खींच ज्योड़ों से की डंडों की बौछार,
ले चले शहर को देते गाली धुआंधार
+
ले चले शहर को देते गाली धुआँधार
  
गिर पांव लाला के बाब्बू गिड़गिड़ाए,
+
गिर पाँव लाला के बाब्बू गिड़गिड़ाए,
 
“मोहलत दे, दे हे लाला!”, वे रिरियाए ।
 
“मोहलत दे, दे हे लाला!”, वे रिरियाए ।
 
“अगली फसल पै सारा कर्ज चुका द्यूंगा,
 
“अगली फसल पै सारा कर्ज चुका द्यूंगा,
ब्याज गल्लै एक-एक पाई दे द्यूंगा।”
+
ब्याज गल्लै एक-एक पाई दे द्यूंगा ।”
  
“चल हट!” – लाला फुंफकारा,
+
“चल हट!” – लाला फुँफकारा,
“नहीं सै बात या मन्नै गवारा।
+
“नहीं सै बात या मन्नै गवारा ।
ना मानूं तेरी इन थोथी बात्तां नै,
+
ना मानूँ तेरी इन थोथी बात्ताँ नै,
कतई ना छोड्डू तेरे बौल्दां नै।”
+
कतई ना छोड्डू तेरे बौल्दाँ नै ।”
  
“के करूं, लाला,” बाब्बू बोले,
+
“के करूँ, लाला,” बाब्बू बोले,
“पकी फसल पर पड़गे ओले।
+
“पकी फसल पर पड़गे ओले ।
सोने-सी गेहूं जमीन पै लेटगी
+
सोने-सी गेहूँ जमीन पै लेटगी
देखते-देखते किस्मत फूटगी।”
+
देखते-देखते किस्मत फूटगी ।”
  
लाला कड़का, हुंकारा, “तो मैं के करूं?  
+
लाला कड़का, हुँकारा, “तो मैं के करूँ ?  
या नवी बात नईं, तेरा के कीन करूं?
+
या नवी बात नईं, तेरा के कीन करूँ ?
 
कुछ ओहर हो जैगा, पाळा पड़ जैगा,
 
कुछ ओहर हो जैगा, पाळा पड़ जैगा,
ऐग लैग जैगी, बेमौसमी मींह पड़ जैगा।
+
ऐग लैग जैगी, बेमौसमी मींह पड़ जैगा ।
  
 
मेरे पीसे तो डूबगे, वापस मिलैंगे नहीं,
 
मेरे पीसे तो डूबगे, वापस मिलैंगे नहीं,
ईब भागते चोर की लंगोटी ही सही।
+
ईब भागते चोर की लंगोटी ही सही ।
 
तेरे बौल्द ही सही, ब्याज तो मिलैगा,  
 
तेरे बौल्द ही सही, ब्याज तो मिलैगा,  
साहुकारों का बुहार तो नई बिगडैगा।”
+
साहुकारों का बुहार तो नई बिगडैगा ।”
  
 
तब मैं छोटा था, पर रोया था मैं जार-जार,
 
तब मैं छोटा था, पर रोया था मैं जार-जार,
उठे थे सवाल: क्यों है बाब्बू मेरा लाचार?
+
उठे थे सवाल: क्यों है बाब्बू मेरा लाचार ?
क्यों है निढाल मां गोबर और भरोटे ढो-ढोकर?
+
क्यों है निढाल माँ गोबर और भरोटे ढो-ढोकर ?
क्यों गिड़गिड़ाए बाब्बू लाला के पांवों में लोटकर?
+
क्यों गिड़गिड़ाए बाब्बू लाला के पाँवों में लोटकर ?
  
और मेरे छिंदरे भी क्यों हैं चिथड़े-चिथड़े?
+
और मेरे छिंदरे भी क्यों हैं चिथड़े-चिथड़े ?
क्यों हैं बिन तले की जूतियां टुकड़े-टुकड़े?
+
क्यों हैं बिन तले की जूतियाँ टुकड़े-टुकड़े ?
क्यों सोना पड़ता है हमें अक्सर पेट काटकर?
+
क्यों सोना पड़ता है हमें अक्सर पेट काटकर ?
जवाब न मिला था कोई चुप हुआ हारकर।
+
जवाब न मिला था कोई चुप हुआ हारकर ।
  
 
लाला ने लिया बाब्बू को जूते की नोक पे,
 
लाला ने लिया बाब्बू को जूते की नोक पे,
मार ठोकर, छीने बैल डंके की चोट पे।
+
मार ठोकर, छीने बैल डंके की चोट पे ।
उछाली पगड़ी बाब्बू की दी गालियां हजार,
+
उछाली पगड़ी बाब्बू की दी गालियाँ हज़ार,
“चोर की लंगोटी” सरे आम ली थी उतार।
+
“चोर की लंगोटी” सरे आम ली थी उतार ।
  
उस वर्ष बाब्बू न कर पाए थे गेहूं की बीजाई,
+
उस वर्ष बाब्बू न कर पाए थे गेहूँ की बीजाई,
हम सब – मां, बहन, मैं, बाब्बू और छोटा भाई,
+
हम सब – माँ, बहन, मैं, बाब्बू और छोटा भाई,
बन लाचार टुकड़े-टुकड़े को हुए थे मोहताज।
+
बन लाचार टुकड़े-टुकड़े को हुए थे मोहताज ।
न जला चूल्हा हमारा परसों, कल और आज।
+
न जला चूल्हा हमारा परसों, कल और आज ।
  
 
न मिला सहारा हमें, न किसी को रहम आया,
 
न मिला सहारा हमें, न किसी को रहम आया,
न लाला ने, न फौजी चाचा ने तरस खाया।
+
न लाला ने, न फौजी चाचा ने तरस खाया ।
 
बाब्बू ने डाल लिया फंदा गले में, छा गया मातम,
 
बाब्बू ने डाल लिया फंदा गले में, छा गया मातम,
मां, भाई और बहन ने भी आखिर तोड़ दिया दम।
+
माँ, भाई और बहन ने भी आख़िर तोड़ दिया दम ।
  
 
अकेला मैं किसी तरह बच गया,
 
अकेला मैं किसी तरह बच गया,
मामा अपने गांव मुझे ले गया।
+
मामा अपने गाँव मुझे ले गया ।
अब बड़ा हो गया हूं मैं, पढ़-लिख गया,
+
अब बड़ा हो गया हूँ मैं, पढ़-लिख गया,
बनकर ‘साब’ बड़ा कुर्सी में धंस गया।
+
बनकर ‘साब’ बड़ा कुर्सी में धँस गया ।
  
गांव गया था मैं हाल ही में, तो बात मुझे बताई,  
+
गाँव गया था मैं हाल ही में, तो बात मुझे बताई,  
छीनने ट्रेक्टर ताऊ का लठैत नहीं, पुलिस थी आई।
+
छीनने ट्रेक्टर ताऊ का लठैत नहीं, पुलिस थी आई ।
 
लाला भी आया था ब्याज और मूलधन वसूलने,
 
लाला भी आया था ब्याज और मूलधन वसूलने,
नए ‘चोर’ की लंगोटी उतारकर पगड़ी उछालने।
+
नए ‘चोर’ की लंगोटी उतारकर पगड़ी उछालने ।
  
 
ताऊ बेचारे हुए थे निढाल और लाचार,
 
ताऊ बेचारे हुए थे निढाल और लाचार,
 
डाला उसने भी गले में अपनी ही पगड़ी का हार।
 
डाला उसने भी गले में अपनी ही पगड़ी का हार।
 
उनकी अपनी पगड़ी बनी स्वर्ग की पींग,
 
उनकी अपनी पगड़ी बनी स्वर्ग की पींग,
झूलकर उस पर वे सो गए गहरी नींद।
+
झूलकर उस पर वे सो गए गहरी नींद ।
  
 
समझ में लगी हैं बातें अब आने,
 
समझ में लगी हैं बातें अब आने,
नए नहीं ये, हैं सवाल वही पुराने।
+
नए नहीं ये, हैं सवाल वही पुराने ।
 
देते दर्द असह्य, रहे हैं वर्षों से झकझोर,
 
देते दर्द असह्य, रहे हैं वर्षों से झकझोर,
आता कलेजा मुंह को, न कोई ओर, न छोर।
+
आता कलेजा मुँह को, न कोई ओर, न छोर ।
  
क्यों झूले मेरे बाब्बू हल की रस्सी से?
+
क्यों झूले मेरे बाब्बू हल की रस्सी से ?
क्यों लटके ताऊ, चाचा अपनी पगड़ियों से?
+
क्यों लटके ताऊ, चाचा अपनी पगड़ियों से ?
क्यों उछलती है पगड़ी हाळियों की?
+
क्यों उछलती है पगड़ी हाळियों की ?
क्यों झुलसती है चमड़ी पाळियों की?
+
क्यों झुलसती है चमड़ी पाळियों की ?
  
क्यों फलते-फूलते हैं सदा ये मोटे लाला पिलपिले?
+
क्यों फलते-फूलते हैं सदा ये मोटे लाला पिलपिले ?
क्यों चलते हैं निरंतर कमेरों की मौत के सिलसिले?
+
क्यों चलते हैं निरंतर कमेरों की मौत के सिलसिले ?
क्यों दाने-दाने को मोहताज बच्चों ने हैं हाथ पसारे?
+
क्यों दाने-दाने को मोहताज बच्चों ने हैं हाथ पसारे ?
क्यों मजे में हैं दलाल, सूदखोर, हाकिम, लुटेरे ये सारे?
+
क्यों मज़े में हैं दलाल, सूदखोर, हाक़िम, लुटेरे ये सारे ?
  
 
पर जवाब मिलता है कि इंडिया चमक रहा है,  
 
पर जवाब मिलता है कि इंडिया चमक रहा है,  
 
बन विश्व सितारा महान भारत दमक रहा है।
 
बन विश्व सितारा महान भारत दमक रहा है।
 
जीते हैं हम कारगिल, खदेड़ दिया सभी पाकियों को,
 
जीते हैं हम कारगिल, खदेड़ दिया सभी पाकियों को,
श्रेय रक्षामंत्री, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और साथियों को।
+
श्रेय रक्षामंत्री, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और साथियों को ।
  
 
पहनकर निक्कर कर लेते हैं देशभक्ति पर वे एकाधिकार,
 
पहनकर निक्कर कर लेते हैं देशभक्ति पर वे एकाधिकार,
किया जिन्होंने मजदूरों को लहूलुहान, किसानों को लाचार।
+
किया जिन्होंने मज़दूरों को लहूलुहान, किसानों को लाचार ।
 
खेत रहे बहादुर सिपाहियों को भूल जाते हैं सब,
 
खेत रहे बहादुर सिपाहियों को भूल जाते हैं सब,
खेत-खलिहानों के बेटों को याद करते हैं कब?
+
खेत-खलिहानों के बेटों को याद करते हैं कब ?
  
आज भूखे पेटों को परोसे जाते हैं आंकड़े,
+
आज भूखे पेटों को परोसे जाते हैं आँकड़े,
आठ, नौ, दस प्रतिशत इतराते हैं आंकड़े।
+
आठ, नौ, दस प्रतिशत इतराते हैं आँकड़े।
 
कितनी बड़ी विडंबना है कि झूठ में है दम,
 
कितनी बड़ी विडंबना है कि झूठ में है दम,
कि दमक रहा है भारत, जुल्म हैं इसमें कम।
+
कि दमक रहा है भारत, ज़ुल्म हैं इसमें कम ।
  
हो गया हूं मैं सयाना, अक्सर सोचता हूं,
+
हो गया हूँ मैं सयाना, अक्सर सोचता हूँ,
सिहर उठता हूं, बाल अपने नोचता हूं।
+
सिहर उठता हूँ, बाल अपने नोचता हूँ ।
 
फिर झटसे उठा सिर अपना, तानता हूं सीना,
 
फिर झटसे उठा सिर अपना, तानता हूं सीना,
नहीं सिसकेंगे और अब, नहीं है होंठ सीना।
+
नहीं सिसकेंगे और अब, नहीं है होंठ सीना ।
  
घुट-घुटकर जीना भी है कोई जीना?
+
घुट-घुटकर जीना भी है कोई जीना ?
लुटेरे करें मौज, हमें है जहर पीना?
+
लुटेरे करें मौज, हमें है ज़हर पीना ?
फांसी से तो बेहतर है संघर्ष का बिगुल बजाना,
+
फाँसी से तो बेहतर है संघर्ष का बिगुल बजाना,
लड़ते हुए पगड़ी संभालना या शहीद हो जाना।
+
लड़ते हुए पगड़ी संभालना या शहीद हो जाना ।
 
</poem>
 
</poem>

11:12, 14 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

तब मैं उम्र में बहुत छोटा था,
ढोर चराता और घास ढोता था ।
मैंने देखा था मेरे बाब्बू हल जोतकर,
बैठे थे हुक्का पीने धूल-धूसरित होकर ।

आ धमका तभी इक मोटा लाला पिल-पिला,
टाँगते हुए लाँगड़, आँगळी हिला-हिला ।
हमारी धरती में ऐंठ से बेंत गाड़ते हुए,
हट्टे-कट्टे लठैत साथ ले बाब्बू को ताड़ते हुए ।

लठैत आए बैलों के पास अकड़ते हुए,
खोला उन्हें जुए से गर्दन पकड़ते हुए ।
खींच ज्योड़ों से की डंडों की बौछार,
ले चले शहर को देते गाली धुआँधार ।

गिर पाँव लाला के बाब्बू गिड़गिड़ाए,
“मोहलत दे, दे हे लाला!”, वे रिरियाए ।
“अगली फसल पै सारा कर्ज चुका द्यूंगा,
ब्याज गल्लै एक-एक पाई दे द्यूंगा ।”

“चल हट!” – लाला फुँफकारा,
“नहीं सै बात या मन्नै गवारा ।
ना मानूँ तेरी इन थोथी बात्ताँ नै,
कतई ना छोड्डू तेरे बौल्दाँ नै ।”

“के करूँ, लाला,” बाब्बू बोले,
“पकी फसल पर पड़गे ओले ।
सोने-सी गेहूँ जमीन पै लेटगी
देखते-देखते किस्मत फूटगी ।”

लाला कड़का, हुँकारा, “तो मैं के करूँ ?
या नवी बात नईं, तेरा के कीन करूँ ?
कुछ ओहर हो जैगा, पाळा पड़ जैगा,
ऐग लैग जैगी, बेमौसमी मींह पड़ जैगा ।

मेरे पीसे तो डूबगे, वापस मिलैंगे नहीं,
ईब भागते चोर की लंगोटी ही सही ।
तेरे बौल्द ही सही, ब्याज तो मिलैगा,
साहुकारों का बुहार तो नई बिगडैगा ।”

तब मैं छोटा था, पर रोया था मैं जार-जार,
उठे थे सवाल: क्यों है बाब्बू मेरा लाचार ?
क्यों है निढाल माँ गोबर और भरोटे ढो-ढोकर ?
क्यों गिड़गिड़ाए बाब्बू लाला के पाँवों में लोटकर ?

और मेरे छिंदरे भी क्यों हैं चिथड़े-चिथड़े ?
क्यों हैं बिन तले की जूतियाँ टुकड़े-टुकड़े ?
क्यों सोना पड़ता है हमें अक्सर पेट काटकर ?
जवाब न मिला था कोई चुप हुआ हारकर ।

लाला ने लिया बाब्बू को जूते की नोक पे,
मार ठोकर, छीने बैल डंके की चोट पे ।
उछाली पगड़ी बाब्बू की दी गालियाँ हज़ार,
“चोर की लंगोटी” सरे आम ली थी उतार ।

उस वर्ष बाब्बू न कर पाए थे गेहूँ की बीजाई,
हम सब – माँ, बहन, मैं, बाब्बू और छोटा भाई,
बन लाचार टुकड़े-टुकड़े को हुए थे मोहताज ।
न जला चूल्हा हमारा परसों, कल और आज ।

न मिला सहारा हमें, न किसी को रहम आया,
न लाला ने, न फौजी चाचा ने तरस खाया ।
बाब्बू ने डाल लिया फंदा गले में, छा गया मातम,
माँ, भाई और बहन ने भी आख़िर तोड़ दिया दम ।

अकेला मैं किसी तरह बच गया,
मामा अपने गाँव मुझे ले गया ।
अब बड़ा हो गया हूँ मैं, पढ़-लिख गया,
बनकर ‘साब’ बड़ा कुर्सी में धँस गया ।

गाँव गया था मैं हाल ही में, तो बात मुझे बताई,
छीनने ट्रेक्टर ताऊ का लठैत नहीं, पुलिस थी आई ।
लाला भी आया था ब्याज और मूलधन वसूलने,
नए ‘चोर’ की लंगोटी उतारकर पगड़ी उछालने ।

ताऊ बेचारे हुए थे निढाल और लाचार,
डाला उसने भी गले में अपनी ही पगड़ी का हार।
उनकी अपनी पगड़ी बनी स्वर्ग की पींग,
झूलकर उस पर वे सो गए गहरी नींद ।

समझ में लगी हैं बातें अब आने,
नए नहीं ये, हैं सवाल वही पुराने ।
देते दर्द असह्य, रहे हैं वर्षों से झकझोर,
आता कलेजा मुँह को, न कोई ओर, न छोर ।

क्यों झूले मेरे बाब्बू हल की रस्सी से ?
क्यों लटके ताऊ, चाचा अपनी पगड़ियों से ?
क्यों उछलती है पगड़ी हाळियों की ?
क्यों झुलसती है चमड़ी पाळियों की ?

क्यों फलते-फूलते हैं सदा ये मोटे लाला पिलपिले ?
क्यों चलते हैं निरंतर कमेरों की मौत के सिलसिले ?
क्यों दाने-दाने को मोहताज बच्चों ने हैं हाथ पसारे ?
क्यों मज़े में हैं दलाल, सूदखोर, हाक़िम, लुटेरे ये सारे ?

पर जवाब मिलता है कि इंडिया चमक रहा है,
बन विश्व सितारा महान भारत दमक रहा है।
जीते हैं हम कारगिल, खदेड़ दिया सभी पाकियों को,
श्रेय रक्षामंत्री, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और साथियों को ।

पहनकर निक्कर कर लेते हैं देशभक्ति पर वे एकाधिकार,
किया जिन्होंने मज़दूरों को लहूलुहान, किसानों को लाचार ।
खेत रहे बहादुर सिपाहियों को भूल जाते हैं सब,
खेत-खलिहानों के बेटों को याद करते हैं कब ?

आज भूखे पेटों को परोसे जाते हैं आँकड़े,
आठ, नौ, दस प्रतिशत इतराते हैं आँकड़े।
कितनी बड़ी विडंबना है कि झूठ में है दम,
कि दमक रहा है भारत, ज़ुल्म हैं इसमें कम ।

हो गया हूँ मैं सयाना, अक्सर सोचता हूँ,
सिहर उठता हूँ, बाल अपने नोचता हूँ ।
फिर झटसे उठा सिर अपना, तानता हूं सीना,
नहीं सिसकेंगे और अब, नहीं है होंठ सीना ।

घुट-घुटकर जीना भी है कोई जीना ?
लुटेरे करें मौज, हमें है ज़हर पीना ?
फाँसी से तो बेहतर है संघर्ष का बिगुल बजाना,
लड़ते हुए पगड़ी संभालना या शहीद हो जाना ।