भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"तेरी आँखों का यह दर्पन अच्छा लगता है / चाँद शुक्ला हादियाबादी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चाँद हादियाबादी }} {{KKCatGhazal}} <poem> तेरी आँखों का यह दर्…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
19:37, 19 जनवरी 2011 के समय का अवतरण
तेरी आँखों का यह दर्पन अच्छा लगता है
इसमें चेहरे का अपनापन अच्छा लगता है
तुंद हवाओं तूफ़ानों से जी घबराता है
हल्की बारिश का भीगापन अच्छा लगता है
वैसे तो हर सूरत की ही अपनी सीरत है
हमको तो बस तेरा भोलापन अच्छा लगता है
पहले तो तन्हाई से हमको डर लगता था
अब तो न जाने क्यों सूनापन अच्छा लगता है
हमने इक दूजे को बाँधा प्यार की डोरी से
सच्चे धागों का यह बंधन अच्छा लगता है
बोलें कड़वे बोल न हम कुछ फीका सुन पाएँ
ऐसा ही गूँगा-बहरापन अच्छा लगता है
दाग़ नहीं है माथे पे रहमत का साया है
‘चाँद’ के चेहरे पर ये चंदन अच्छा लगता है