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19:19, 21 अक्टूबर 2007 का अवतरण
दिन था भीषण गर्मी का
मन मेरा तुझसे मिलने को अकुलाया
भरी दुपहरी, तेज़ धूप थी
चार कोस पैदल चलकर मैं तुझ से मिलने आया
पर बन्द थी तेरी कुटीर
तुझे देखने को आतुर
मगन मन मेरा था अधीर
चल रही थी उत्तप्त लू, झुलसाती थी शरीर
उस बन्द कुटी के सम्मुख ही मैं सारा दिन बैठा आया
कपोत-कंठी तू ललाम वामा
अभिसारिका, अनुपमा, मादक, कामा
हृदय बिंधे तेरे सम्मोहक बाण
वशीकरण बंधे थे मेरे प्राण
उस दिवस ही कवि बना मैं, उस दिवस ही पगलाया
1999 में रचित