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जन्म-मरण का ‘होना’ और ‘न होना’
यही प्रकृति का अटल नियम है।
देश काल भी इसी नियम के
अंतर्गत है।
गत से आगत-
आगत से आगम होता है;
यही-यही क्रम फिर-फिर चलता;
आगम से आगे का आगम
इसी तरह से
होता और न होता
कभी न इससे बचता।
नित-नित नूतन विकसित होता,
यह विकास भी विगलित होता,
विगलित होकर
रूप बदलकर
प्रचलित होता।
परिवर्तन से परिवर्तन-
फिर-फिर परिवर्तन
होता,
प्रत्यावर्तन कभी न होता।
कभी न होगा ‘शून्य’ ‘शून्य’ ही
सदा-सर्वदा
भरा रहेगा
सृष्टि-सृष्टि से।
किंतु चेतना के अर्जन से
‘होने’ और ‘न होने’ पर भी
अमिट प्रभाव पड़ा है;
प्रकृति
चेतना से अनुकूलित होते-होते
मानवबोधी
चेतन सृष्टि हुई है
यह लौकिक मानव की
प्रियतम सिद्ध हुई है
परम अलौकिकता से
उसको मुक्ति मिली है।
द्वन्द्व और संघर्ष
निरंतर चला करेगा
लौकिक मानव
लौकिक जीवन जिया करेगा।
मुक्ति और निर्वाण नहीं है।
नाश और निर्माण है
प्राण और निष्प्राण है।
चेतन रहकर जीने में कल्याण है,
एकमात्र बस
यही सत्य-संज्ञान है।
रचनाकाल: १८-१-१९९२