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'''पाँवलिया-- कवि का गृह-गाँव है''' मेरे गृह से सुन पडती गिरिवन गिरि-वन से आती
हँसी स्वच्छ नदियों की, सुन पडती विपिनों की,
मर्मर ध्वनियाँ, सदा दीख पड़ते घरों से
झरती वर्षा, आ बसंत कोमल फूलों से,
मेरे घर को घेर गूँज उठता, विहगों के दल
निशी दिन मेरे विपिनो में उडते उड़ते रहते । कोलाहल से दूर शांत नीरव शैलों पर,मेरा गृह है, जहाँ बच्चियों-सी हँस-हँस कर,नाच-नाच बहती हैं छोटी-छोटी नदियाँ,जिन्हें देखकर, जिनकी मीठी ध्वनियाँ सुनकर,मुझे ज्ञात होता जैसे यह प्रिय पृथ्वी तो,अभी-अभी ही आई है, इसमें चिंता कोऔर मरण को, स्थान अभी कैसे हो सकता है ?
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