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"जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला / गोपालदास "नीरज" के अवतरणों में अंतर
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12:57, 24 जनवरी 2011 का अवतरण
जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला
मेरे स्वागत को हर एक जेब से खंजर निकला
तितलियों फूलों का लगता था जहां पर मेला
प्यार का गाँव वो बारूद का दफ्तर निकला
डूब कर जिसमे उबर पाया न मैं जीवन भर
एक आंसू का वो कतरा तो समुंदर निकला
मेरे होठों पे दुआ उसकी जुबां पे गाली
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला
जिंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा
मेरा सब रूप वो मिटटी की धरोहर निकला
वो तेरे द्वार पे हर रोज ही आया लेकिन
नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर निकला
रुखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला
क्या अजब है इंसान का दिल भी 'नीरज'
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला