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22:43, 29 दिसम्बर 2007 के समय का अवतरण
पानी बहने और तारे चमकने की तरह
एक कठिन संगीतहीन संसार में
वह भी बजा कुछ देर तक
वह कमरे के बीचोंबीच रखा था
उजाले में
उसके कारण जानी गई यह जगह
लोग आते और उसके चारों ओर बैठते
अब वह पड़ा है बाकी सामान के बीच
पीतल लोहे और लकड़ी के साथ
उसे बजाने पर अब राग दुर्गा या पहाड़ी के स्वर नहीं आते
सिर्फ़ एक उसाँस सुनाई देती है
कभी-कभी वह छिप जाता है एक पुश्तैनी बक्से में
मिज़ाजपुर्सी के लिए आए लोगों से
बचने की कोशिश करता हुआ
(1993 में रचित)