"लोकतंत्र में ईश्वर / राकेश रोहित" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रोहित |संग्रह = }} {{KKCatKavita}} <poem> एक आदमी चूहे की …) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 40: | पंक्ति 40: | ||
वह ईश्वर नहीं था | वह ईश्वर नहीं था | ||
हमारे ही बीच का आदमी था | हमारे ही बीच का आदमी था | ||
− | जिसे जनतंत्र ने भगवान बना दिया | + | जिसे जनतंत्र ने भगवान बना दिया था । |
</poem> | </poem> |
01:14, 5 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
एक आदमी
चूहे की तरह दौड़ता था
अन्न का एक दाना मुँह में भर लेने को विकल।
एक आदमी
केकड़े की तरह खींच रहा था
अपने जैसे दूसरे की टाँग।
एक आदमी
मेंढक की तरह उछल रहा था
कुएँ को पूरी दुनिया समझते हुए।
एक आदमी
शुतुरमुर्ग की तरह सर झुकाए
आँधी को गुज़रने दे रहा था।
एक आदमी
लोमड़ी की तरह न्योत रहा था
सारस को थाली में खाने के लिए।
एक आदमी
बंदर की तरह न्याय कर रहा था
बिल्लियों के बीच रोटी बाँटते हुए।
एक आदमी
शेर की तरह डर रहा था
कुएँ में देखकर अपनी परछाईं।
एक आदमी
टिटहरी की तरह टाँगें उठाए
आकाश को गिरने से रोक रहा था।
एक आदमी
चिड़िया की तरह उड़ रहा था
समझते हुए कि आकाश उसके पंजों के नीचे है
एक आदमी...!
एक आदमी
जो देख रहा था दूर से यह सब,
मुस्कराता था इन मूर्खताओं को देखकर
वह ईश्वर नहीं था
हमारे ही बीच का आदमी था
जिसे जनतंत्र ने भगवान बना दिया था ।