"दादा की तस्वीर / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर
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+ | माँ कहती है जब हम | ||
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+ | रात के विचित्र पशुओं से घिरे सो रहे होते हैं | ||
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+ | दादा इस तस्वीर में जागते रहते हैं | ||
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+ | मैं अपने दादा जितना लम्बा नहीं हुआ | ||
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+ | शान्त और गम्भीर नहीं हुआ | ||
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+ | पर मुझमें कुछ है उनसे मिलता जुलता | ||
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+ | मैं भी सर झुकाकर चलता हूँ | ||
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+ | जीता हूँ अपने को तस्वीर के एक खाली फ़्रेम में | ||
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+ | बैठे देखता हुआ | ||
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+ | (1990) |
22:32, 11 जून 2007 का अवतरण
रचनाकार: मंगलेश डबराल
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ दादा को तस्वीरें खिंचवाने का शौक नहीं था
या उन्हें समय नहीं मिला
उनकी सिर्फ़ एक तस्वीर गंदी पुरानी दीवार पर टंगी है
वे शांत और गम्भीर बैठे हैं
पानी से भरे हुए बादल की तरह
दादा के बारे में इतना ही मालूम है
कि वे माँगनेवालों को भीख देते थे
नींद में बेचैनी से करवट बदलते थे
और सुबह उठकर
बिस्तर की सलवटें ठीक करते थे
मैं तब बहुत छोटा था
मैंने कभी उनका गुस्सा नहीं देखा
उनका मामूलीपन नहीं देखा
तस्वीरें किसी मनुष्य की लाचारी नहीं बतलातीं
माँ कहती है जब हम
रात के विचित्र पशुओं से घिरे सो रहे होते हैं
दादा इस तस्वीर में जागते रहते हैं
मैं अपने दादा जितना लम्बा नहीं हुआ
शान्त और गम्भीर नहीं हुआ
पर मुझमें कुछ है उनसे मिलता जुलता
वैसा ही क्रोध वैसा ही मामूलीपन
मैं भी सर झुकाकर चलता हूँ
जीता हूँ अपने को तस्वीर के एक खाली फ़्रेम में
बैठे देखता हुआ
(1990)