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"एकात्म / दिनेश कुमार शुक्ल" के अवतरणों में अंतर

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17:37, 10 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

मजे में दिन
गिलहरी बन
कुतरता
धूप की चादर

और रात
सीपी की तरह
खुलकर
एकाएक बन्द हो जाती

याद आती
सुबह की दमखम
कि जब छायाएं
सबसे ज्यादा
लम्बी हो के
धरती नाप लेना चाहती हैं

किन्तु यह दमखम
ज़रा-सी
फुलझड़ी बन
चार पल में
खत्म हो जाती

आग जलती रहे
इसके लिये
ईंधन चाहिये --

जब कि
अपने वर्ग से
हम पूर्ण एकाकार हो जाएं --
जैसे मीन
पानी में
जैसे शब्द
वाणी में

तभी संभव है
हमारी कल्पनाएं
धारणाएं
और कविताएं
कुछ कर दिखाएं।