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"दिन-ब-दिन घाव गहरे हुए / जहीर कुरैशी" के अवतरणों में अंतर

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शेर अख़बार पढ़कर...कहे
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कथ्य यूँ भी इकहरे हुए !
 
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18:46, 11 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

दिन-ब-दिन घाव गहरे हुए
पीर के पल सुनहरे हुए

स्वार्थवश लोग अंधे बने
स्वार्थवश लोग बहरे हुए

एक से काम चलता न था
उनके चेहरों पे चेहरे हुए

तन को बंधक बनाने के बाद
रूप के मन पे पहरे हुए

अच्छे दिखते हैं झंडे तभी
जब निकलते हैं फहरे हुए

भीड़ चलती है चींटी की चाल
लोग लगते हैं ठहरे हुए

शेर अख़बार पढ़कर...कहे
कथ्य यूँ भी इकहरे हुए !