"सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 11" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 11: | पंक्ति 11: | ||
}} | }} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | बहुरि कही जेवनार सब, जिमि कीन्हीं बहु | + | बहुरि कही जेवनार सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति । |
− | बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की | + | बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की पाँति ।।112।। |
− | जादिन अधिक सनेह सों, सपन दिखायो | + | जादिन अधिक सनेह सों, सपन दिखायो मोहिं । |
− | सेा देख्यो परतच्छ ही,सपन न निसफल | + | सेा देख्यो परतच्छ ही,सपन न निसफल होहिं ।।113।। |
बरनि कथा वहि विधि सबै, कह्ययो आपनो मोह। | बरनि कथा वहि विधि सबै, कह्ययो आपनो मोह। | ||
− | वृथा कृपानिधि भगत-हितु-चिदानन्द | + | वृथा कृपानिधि भगत-हितु-चिदानन्द सन्दोह ।।114।। |
साजे सब साज-,बाजि गज राजत हैं, | साजे सब साज-,बाजि गज राजत हैं, | ||
− | विविध रूचिर रथ पालकी बहल | + | विविध रूचिर रथ पालकी बहल है । |
रतनजटित सुभ सिंहासन बैठिबे को, | रतनजटित सुभ सिंहासन बैठिबे को, | ||
− | चौक कामधेनु कल्पतरूहू | + | चौक कामधेनु कल्पतरूहू लहलहैं । |
देखि देखि भूषण वसन-दासि दासन के, | देखि देखि भूषण वसन-दासि दासन के, | ||
सुख पाकसासन के लागत सहल है। | सुख पाकसासन के लागत सहल है। | ||
सम्पति सुदामा जू को कहाँ लौं दई है प्रभु, | सम्पति सुदामा जू को कहाँ लौं दई है प्रभु, | ||
− | कहाँ लौं गिनाऊँ जहाँ कंचन महल | + | कहाँ लौं गिनाऊँ जहाँ कंचन महल है ।।115।। |
अगनित गज वाजि रथ पालकी समाज, | अगनित गज वाजि रथ पालकी समाज, | ||
− | ब्रजराज महाराज राजन-समाज | + | ब्रजराज महाराज राजन-समाज के । |
बानिक विविध बने मंदिर कनक सोहैं, | बानिक विविध बने मंदिर कनक सोहैं, | ||
− | मानिक जरे से मन मोहें देवतान | + | मानिक जरे से मन मोहें देवतान के । |
हिरा लाल ललित झरोखन में झलकत, | हिरा लाल ललित झरोखन में झलकत, | ||
− | किमि किमि झूमर झुलत मुकतान | + | किमि किमि झूमर झुलत मुकतान के । |
जानी नहिं विपति सुदामा जू की कहाँ गई, | जानी नहिं विपति सुदामा जू की कहाँ गई, | ||
− | देखिये विधान जदुराय के सुदान | + | देखिये विधान जदुराय के सुदान के ।।116।। |
कहूँ सपनेहूँ सुबरन के महल होते, | कहूँ सपनेहूँ सुबरन के महल होते, | ||
− | पौरि मनि मण्डित कलस कब | + | पौरि मनि मण्डित कलस कब धरते । |
रतन जटित सिंहासन पर बैठिबे को, | रतन जटित सिंहासन पर बैठिबे को, | ||
− | कब ये खबास खरे मौपे चौंर | + | कब ये खबास खरे मौपे चौंर ढरते । |
देखि राजसामा निज बामा सों सुदामा कह्यो, | देखि राजसामा निज बामा सों सुदामा कह्यो, | ||
− | कब ये भण्डार मेरे रतनन | + | कब ये भण्डार मेरे रतनन भरते । |
जो पै पतिवरता न देती उपदेश तू तो, | जो पै पतिवरता न देती उपदेश तू तो, | ||
− | एती कृपा द्वारिकेस मो पैं कब | + | एती कृपा द्वारिकेस मो पैं कब करते ।।117।। |
− | पहरि उठे अम्बर रूचिर सिंहासन पर | + | पहरि उठे अम्बर रूचिर सिंहासन पर आय । |
− | बैठे प्रभुता निरखि कै, सुर-पति रह्यो | + | बैठे प्रभुता निरखि कै, सुर-पति रह्यो लजाई ।।118।। |
− | कै वह टूटि | + | कै वह टूटि सि छानि हती कहाँए कंचन के सब धाम सुहावत । |
− | कै पग में पनही न हती कहँए लै गजराजहु ठाढ़े | + | कै पग में पनही न हती कहँए लै गजराजहु ठाढ़े महावत ।। |
− | भूमि कठोर पै रात कटै कहाँए कोमल सेज पै नींद न | + | भूमि कठोर पै रात कटै कहाँए कोमल सेज पै नींद न आवत । |
− | कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभुए के परताप तै दाख न | + | कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभुए के परताप तै दाख न भावत ।।119।। |
− | बहुरि | + | बहुरि कहि |
</poem> | </poem> |
17:45, 14 फ़रवरी 2011 का अवतरण
<< पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ |
बहुरि कही जेवनार सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति ।
बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की पाँति ।।112।।
जादिन अधिक सनेह सों, सपन दिखायो मोहिं ।
सेा देख्यो परतच्छ ही,सपन न निसफल होहिं ।।113।।
बरनि कथा वहि विधि सबै, कह्ययो आपनो मोह।
वृथा कृपानिधि भगत-हितु-चिदानन्द सन्दोह ।।114।।
साजे सब साज-,बाजि गज राजत हैं,
विविध रूचिर रथ पालकी बहल है ।
रतनजटित सुभ सिंहासन बैठिबे को,
चौक कामधेनु कल्पतरूहू लहलहैं ।
देखि देखि भूषण वसन-दासि दासन के,
सुख पाकसासन के लागत सहल है।
सम्पति सुदामा जू को कहाँ लौं दई है प्रभु,
कहाँ लौं गिनाऊँ जहाँ कंचन महल है ।।115।।
अगनित गज वाजि रथ पालकी समाज,
ब्रजराज महाराज राजन-समाज के ।
बानिक विविध बने मंदिर कनक सोहैं,
मानिक जरे से मन मोहें देवतान के ।
हिरा लाल ललित झरोखन में झलकत,
किमि किमि झूमर झुलत मुकतान के ।
जानी नहिं विपति सुदामा जू की कहाँ गई,
देखिये विधान जदुराय के सुदान के ।।116।।
कहूँ सपनेहूँ सुबरन के महल होते,
पौरि मनि मण्डित कलस कब धरते ।
रतन जटित सिंहासन पर बैठिबे को,
कब ये खबास खरे मौपे चौंर ढरते ।
देखि राजसामा निज बामा सों सुदामा कह्यो,
कब ये भण्डार मेरे रतनन भरते ।
जो पै पतिवरता न देती उपदेश तू तो,
एती कृपा द्वारिकेस मो पैं कब करते ।।117।।
पहरि उठे अम्बर रूचिर सिंहासन पर आय ।
बैठे प्रभुता निरखि कै, सुर-पति रह्यो लजाई ।।118।।
कै वह टूटि सि छानि हती कहाँए कंचन के सब धाम सुहावत ।
कै पग में पनही न हती कहँए लै गजराजहु ठाढ़े महावत ।।
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँए कोमल सेज पै नींद न आवत ।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभुए के परताप तै दाख न भावत ।।119।।
बहुरि कहि