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"स्तालिन / मख़दूम मोहिउद्दीन" के अवतरणों में अंतर

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मूज़ी
 
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दहन-ए आज़-ओ-हलाकत का शिकंजा लेकर
 
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मेरे शाही के ख़िलाफ़
 
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रात दिन हैं के चले आते हैं
 
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नहीं जाएँगे कभी रायगाँ मेरे नग़मे
 
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और मेरे हम वतनों के नग़मे
 
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मेरा शाहीन, मेरा स्तालिन
 
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मेरे शाहीन बच्चे, जिनका अभी नाम नहीं
 
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सुर्ख़रू और सर‍अफ़राज़ फ़िज़ाओं में बुलन्द
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हाँ मेरे हम वतनो
 
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वतन !
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17:29, 15 फ़रवरी 2011 का अवतरण

नब्बे साला बूढ़े तातारी शायर जम्बूल जाबर की नज़्म का मुक्त अनुवाद

सफे आदा के मुक़ाबिल है हमारा रहबर स्तालिन
मादर-ए-रूस की आँखों का दरख़्शाँ तारा
जिसकी ताबानी से ज़ामिन है ज़मीं
वो ज़मीं और वो वतन
जिसकी आज़ादी का ज़ामिल है शहीदों का लहू
जिसकी बुनियादों में जम्हूर का अर्क़
उनकी मेहनत का उक़ूवत का मुहब्बत का ख़मीर
वो ज़मीं
उसका जलाल
उसका हस्ज्म
क्या मैं इस रज़्म का ख़ामूश तमाशाई बनूँ
क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ
क्या मुजाहिद न बनूँ ?
क्या मैं तलवार उठाऊँ न वतन की ख़ातिर
मेरे प्यारे मेरे फ़िरदौस बदन की ख़ातिर
ऐसे हंगाम-ए क़यामत में मेरा नग़म-ए- शौक
क्या मेरे हमवतनों के दिल मेंज़िन्दगी और मसर्रत बनकर
न समा जाएगा ?


क़ुर्रतुलएन ! मेरी जान-ए अज़ीज़
ओ मेरे फ़रज़न्दो !
बर्क़-पा वो मेरा रहवार कहाँ है लाना
तिश्न-ए खूँ मेरी तलवार कहाँ है लाना
मेरे नग़मे तो वहाँ गूँजेंगें
है मेरा क़ाफ़िला सालार जहाँ स्तालिन


वो मेरा मुल्के जवाँ
वो मेरा बाद-ए-अहमर का जवाँ साल सबू
मेरी नौख़ेज़ मसर्रत का जहाँ
वो मेरा सर्वे रवाँ मुल्के जवाँ
वलदुलजुर्म ख़ताकार दरिन्दों ने जहाँ
अपने नापाक इरादों से क़दम रखा है
एक नौख़ेज़ कली एक नौआशाज़ वश्र
वो मेरा मुल्के जवाँ
सच कहा है कि-- "ज़मीं के कीड़े
अपनी बेवक़्त अजल से डर कर
थरथराते हुए सहमे हुए घबराए हुए
निकल आए हैं बिलों से बाहर"
अपने फ़ौलाद से रौज़न के दहन बन्द करो
और फ़ासिस्ट शिग़ालों से कहो
नग़म-ए-अव्वल वो आख़िर है यही

क़ुर्रतुलएन ! मेरी जान-ए अज़ीज़
ओ मेरे फ़रज़न्दो !
बर्क़-पा वो मेरा रहवार कहाँ है लाना
तिश्न-ए खूँ मेरी तलवार कहाँ है लाना
मेरे नग़मे तो वहाँ गूँजेंगें
है मेरा क़ाफ़िला सालार जहाँ स्तालिन

यही महशर है दो आलम का तसादुम है यही
एक पुराना आलम
एक नया
एक मरती हुई बुढ़िया का लंगड़ता हुआ पाँव
एक ढलती हुई छाँव
दूसरा एक उभरते हुए सीने का शबाब
तेज़ और तुन्द शराब
पेट से रेंगने वाले ये नज़स और नापाक
सूसमार
दौर-ए-वहशत के दरिन्दे
मूज़ी
दहन-ए आज़-ओ-हलाकत का शिकंजा लेकर

मेरे शाही के ख़िलाफ़
रात दिन हैं के चले आते हैं
नहीं जाएँगे कभी रायगाँ मेरे नग़मे
और मेरे हम वतनों के नग़मे
मेरे शाहीन<ref>बादशाह</ref> तो मन्सूरी मुज़फ़्फ़र<ref>मंसूर और मुज़फ़्फ़र जैसे प्रशंसनीय विजेता</ref> ही रहेंगे दोएम<ref>हमेशा</ref>
सूसमाराने खिज़िन्दा<ref>गोह को जगाने वाला</ref> दरगोर
मेरा शाहीन, मेरा स्तालिन
मेरे शाहीन बच्चे, जिनका अभी नाम नहीं
सुर्ख़रू और सर‍अफ़राज़<ref>विजयी, सफल</ref> फ़िज़ाओं में बुलन्द
हाँ मेरे हम वतनो
जाओ और अपने समन्दों<ref>घोड़ों</ref> को तो महमेज़<ref>नाल ठोंक कर ठीक करो</ref> करो
सुर्ख़ फ़ौजों में मिलो
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उससे कहना सरे दुश्मन पे गिरे शल बनकर
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लाएँ वो अपने सिन-ओ-साल<ref>सारी उम्र का</ref> का हासिल लाएँ
और कुर्बान वतन कर डालें
ये हैं रहवार, ये पशमीना हैं, ये खिर्मन<ref>खेत</ref> हैं
मेरे महबूब वतन
सबके सब तेरे हैं सब तेरे है
स्तालिन ने मैदाँ में बुलाया है हमें
कस्ब<ref>मेहनत</ref> और जहद<ref>संघर्ष</ref> का पैग़ाम सुनाया है हमें
खित्त-ए क़ुद्स से<ref>देश की पवित्र धरती के खण्ड से</ref> दुश्मन को निकालो बाहर
कज़ाख़स्तान !
वतन !
अपनी ताक़त को समेटे हुए उठ
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फूँक दे दुश्मने नापाक की खाकिस्तर<ref>राख़</ref> को

शब्दार्थ
<references/>

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