भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सुनसान रास्तों से सवारी न आएगी / बशीर बद्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=बशीर बद्र | |रचनाकार=बशीर बद्र | ||
− | |संग्रह=उजाले अपनी यादों के / बशीर बद्र | + | |संग्रह=उजाले अपनी यादों के / बशीर बद्र; आस / बशीर बद्र |
}} | }} | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} |
16:59, 16 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
सुनसान रास्तों से सवारी न आएगी
अब धूल से अटी हुई लारी न आएगी
छप्पर के चायख़ाने भी अब ऊंघने लगे
पैदल चलो के कोई सवारी न आएगी
तहरीरों गुफ़्तगू में किसे ढूँढ़ते हैं लोग
तस्वीर में भी शक्ल हमारी न आएगी
सर पर ज़मीन लेके हवाओं के साथ जा
आहिस्ता चलने वाले की बारी न आएगी
पहचान हमने अपनी मिटाई है इस तरह
बच्चों में कोई बात हमारी न आएगी