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"ख़बर के बग़ैर / ब्रज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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रात तक हमारे कान लगे होते हैं | रात तक हमारे कान लगे होते हैं |
11:16, 21 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
सुबह से ही हम प्यासे हो जाते हैं
ख़बरों की चाय पीने के लिए
रात तक हमारे कान लगे होते हैं
सुनने के लिए कोई चटपटी ख़बर
हम अपने बच्चों को नई-पुरानी
ख़बर ही पढ़ा रहे होते हैं
जानकार,कलाकार और व्यापारी
अपनी तरक्की की राह में इन्हें ही
करते हैं पार
ख़बर के बग़ैर नहीं कर सकते ख़रीदारी हम
चिकित्सक के द्वार तक नहीं पहुँच सकते
गुरु और धार्मिक-स्थल तक का नहीं कर सकते चयन
सब जगहों पर ख़बरों की मार है
हर चीज़ बन जाना चाहती है ख़बर
मालिक का प्रभाव और
मज़दूरों की मेहनत ख़बर बन जाने को बेचैन है
और हर कोई इस तरह से चल रहा है
जैसे वह कोई ख़बर हो
बाज़ार ने वश में कर ली हैं ख़बरें
सब होते जा रहे हैं ख़ुद से बेख़बर।