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नगरों में औद्यॊगिक बस्तियां हंस रही हैं,<br> किन्तु चरित्र की दुल्हन आहें भर रही है।<br> विज्ञान की दीवार ऊंची उठ रही है,<br> धर्म की दीवार नीचे धंस रही है॥<br><br> सुविधाओं का चांद मुस्कुरा रहा है,<br> संयम का सूरज ढ़ल रहा है।<br> बुद्धि की प्रखरता प्रगति पथ पर अग्रसर है,<br> किन्तु हृदय की सुकुमारिता,म्रिग-मरीचका में भटकने लगा है॥<br><br> रंग रोगन जर्जर काष्ठ का काया कल्प करने लगा है,<br> बुरादा चाय के सांचे में ढ़लने लगा है।<br> सादगी फिसलने लगी है,फैशन संभलने लगा है,<br> स्वार्थ जमने लगा है,परमार्थ लड़खड़ाने लगा है॥<br><br> असलियत रोने लगी है, बनावट हंसने लगी है,<br> कृतज्ञता कुम्हलाने लगी है,कृतघ्नता लहलहाने लगी है।<br> स्नेह सिमटनें लगा है, वैमनस्य बढ़ने लगा है,<br> विश्वास उखड़ने लगा है,संदेह जमने लगा है॥<br><br> साहित्यिक उपवन में विधाओं की कोपलें फूटने लगी हैं,<br> किन्तु भावपक्ष का निर्झर सूखने लगा है ।<br> साहित्यिक कृतियों में वासना बसने लगी है,<br> आदर्श का दम घुटने लगा है॥<br><br> बांध बांधे गये,सड़कों,रेलवे लाईनों के जाल बिछाये गये,<br> वायुयान उड़ाये गये,शान्ति फिर भी न मिल सकी ,<br> वह न जाने कहां हवा हो गई?<br> सुविधाएं तो जरूर मिली , पर दुविधाएं तो हल न हो सकी॥<br><br> अर्थवाद की मीनार ऊंची उठी,<br> किन्तु नैतिकता की भित्तियां लरजने लगी ।<br> कारखानों की धुंआ उगलने वाली चिमनियां,<br> मानव हृदय को कालिमा से ढ़कने लगी ॥<br><br> वचन बद्धता से नाता टूट गया,<br> वचन भंगता मान्यता पाने लगी।<br> जनमानस के मदिरालय में,<br> भौतिकवादी सुरा छलकने लगी॥<br><br> आध्यात्मवाद का चमचमाता चषक<br> चूर-चूर हो गया है ।<br> 'वसुधैव कुटुम्बकम' के गीत गानेवाले हम,<br> प्रान्तीयता के जाल में उलझे हुए हैं ॥<br><br> दया,क्षमा,त्याग,पर-दु:ख कातरता छोड़,<br> क्रूरता, पर-पीड़ा और स्वार्थ को गले लगाया है।<br> अब स्वयं निर्णय करो स्वतंत्र भारत ने ,<br> क्या खोया? क्या पाया है?क्या यही हमारा सपना था??<br><br>