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"द्वेष के विष सर्प / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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प्रतिक्रिया की अग्नि से होकर प्रभावित  
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प्रतिक्रिया की  
घर हमारे आज जलने लग गये,
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अग्नि से होकर प्रभावित  
मंजिलों केा पर करने के लिये हम  
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घर हमारे आज जलने लगे ।
हर तरह का रास्ता चुनने लगे,
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मंज़िलों को
सत्य ने अब झूंठ के दरबार जाकर  
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पर करने के लिए हम  
टेक कर घुटनें झुकाया शाीश है,  
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हर तरह का रास्ता चुनने लगे
बुझदिली को हर कदम पर रोशनी से   
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वीरता का मिल रहा आशीष है,
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सत्य ने अब  
स्वार्थ की जलती शिखा में नेह के  
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झूठ के दरबार जाकर  
मोम से सम्बन्ध हैं गलने लगे,
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टेक कर घुटने
कह रही है अज पीठें आदमी की  
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झुकाया शीश है,  
घाव कब कितने कहां पर हैं लगे,
+
बुझदिली को  
जख्म को जितना कुरेदा मलहमों ने  
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हर क़दम पर रोशनी से   
दर्द से उतना गये हैं वे ठगे,  
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वीरता का मिल रहा  
ब्ेाहिचक अब आस्तीनों में हमारी
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आशीष है,
द्वेष के विष सर्प हैं पलने लगे,
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स्वार्थ की  
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जलती शिखा में नेह के  
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मोम से सम्बन्ध हैं गलने लगे
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कह रही है  
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आज पीठें आदमी की  
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घाव कब कितने कहाँ पर हैं लगे
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ज़ख़्म को जितना कुरेदा  
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मलहमों ने  
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दर्द से उतना गए हैं वे ठगे  
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बेहिचक अब  
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आस्तीनों में हमारी
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द्वेष के विष सर्प हैं पलने लगे
 
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02:18, 27 फ़रवरी 2011 का अवतरण

प्रतिक्रिया की
अग्नि से होकर प्रभावित
घर हमारे आज जलने लगे ।
मंज़िलों को
पर करने के लिए हम
हर तरह का रास्ता चुनने लगे ।

सत्य ने अब
झूठ के दरबार जाकर
टेक कर घुटने
झुकाया शीश है,
बुझदिली को
हर क़दम पर रोशनी से
वीरता का मिल रहा
आशीष है,

स्वार्थ की
जलती शिखा में नेह के
मोम से सम्बन्ध हैं गलने लगे ।
कह रही है
आज पीठें आदमी की
घाव कब कितने कहाँ पर हैं लगे ।
 
ज़ख़्म को जितना कुरेदा
मलहमों ने
दर्द से उतना गए हैं वे ठगे ।
बेहिचक अब
आस्तीनों में हमारी
द्वेष के विष सर्प हैं पलने लगे ।