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"द्वेष के विष सर्प / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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− | स्वार्थ की जलती शिखा में नेह के | + | झूठ के दरबार जाकर |
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+ | जलती शिखा में नेह के | ||
+ | मोम से सम्बन्ध हैं गलने लगे । | ||
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+ | घाव कब कितने कहाँ पर हैं लगे । | ||
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+ | ज़ख़्म को जितना कुरेदा | ||
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+ | दर्द से उतना गए हैं वे ठगे । | ||
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+ | आस्तीनों में हमारी | ||
+ | द्वेष के विष सर्प हैं पलने लगे । | ||
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02:18, 27 फ़रवरी 2011 का अवतरण
प्रतिक्रिया की
अग्नि से होकर प्रभावित
घर हमारे आज जलने लगे ।
मंज़िलों को
पर करने के लिए हम
हर तरह का रास्ता चुनने लगे ।
सत्य ने अब
झूठ के दरबार जाकर
टेक कर घुटने
झुकाया शीश है,
बुझदिली को
हर क़दम पर रोशनी से
वीरता का मिल रहा
आशीष है,
स्वार्थ की
जलती शिखा में नेह के
मोम से सम्बन्ध हैं गलने लगे ।
कह रही है
आज पीठें आदमी की
घाव कब कितने कहाँ पर हैं लगे ।
ज़ख़्म को जितना कुरेदा
मलहमों ने
दर्द से उतना गए हैं वे ठगे ।
बेहिचक अब
आस्तीनों में हमारी
द्वेष के विष सर्प हैं पलने लगे ।