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"काली बिल्ली ढूंढ रही/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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− | + | कली बिल्ली ढूँढ रही है, घर-घर आज शिकार । | |
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घिरे अंधंरे में भी इसकी | घिरे अंधंरे में भी इसकी | ||
− | चमक रही हैं | + | चमक रही हैं आँखे, |
जैसे रातों में दिखती हैं | जैसे रातों में दिखती हैं | ||
− | तपती | + | तपती हुई सलाखें, |
− | धीरे धीरे करती फिरती है नाखूनी वार | + | |
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− | दीख रही इसकी | + | कोई दामन बचा न इससे, है कितनी ख़ूँखार । |
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+ | दीख रही इसकी आँखों में | ||
संम्मोहन की ज्वाला, | संम्मोहन की ज्वाला, | ||
− | जिसकी ओर निहारा उसको | + | जिसकी ओर निहारा, उसको |
अपने वश कर डाला, | अपने वश कर डाला, | ||
− | चुपके चुपके घूम रही है | + | |
− | बैठी कभी तिजोरी घर में कभी सभा | + | चुपके चुपके घूम रही है सरेआम बाज़ार । |
− | घूम रही अपने | + | बैठी कभी तिजोरी घर में कभी सभा दरबार । |
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+ | गूंगे घुँघरू बाँधे, | ||
+ | बड़े बड़ों क दामन अपने | ||
पंजों के बल साधे, | पंजों के बल साधे, | ||
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बनते और बिगड़ते इसके दम पर कारोबार, | बनते और बिगड़ते इसके दम पर कारोबार, | ||
− | कितने हैं | + | कितने हैं मज़बूत इरादे कितने हैं दमदार । |
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02:21, 27 फ़रवरी 2011 का अवतरण
कली बिल्ली ढूँढ रही है, घर-घर आज शिकार ।
उसे नहीं इससे मतलब है कौन कहां लाचार ।
घिरे अंधंरे में भी इसकी
चमक रही हैं आँखे,
जैसे रातों में दिखती हैं
तपती हुई सलाखें,
धीरे-धीरे करती फिरती है नाखूनी वार ।
कोई दामन बचा न इससे, है कितनी ख़ूँखार ।
दीख रही इसकी आँखों में
संम्मोहन की ज्वाला,
जिसकी ओर निहारा, उसको
अपने वश कर डाला,
चुपके चुपके घूम रही है सरेआम बाज़ार ।
बैठी कभी तिजोरी घर में कभी सभा दरबार ।
घूम रही अपने पाँवों में
गूंगे घुँघरू बाँधे,
बड़े बड़ों क दामन अपने
पंजों के बल साधे,
बनते और बिगड़ते इसके दम पर कारोबार,
कितने हैं मज़बूत इरादे कितने हैं दमदार ।