"हरी है ये ज़मीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर
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धरा सजती मुहब्बत से, गगन सजता मुहब्बत से | धरा सजती मुहब्बत से, गगन सजता मुहब्बत से | ||
− | मुहब्बत | + | मुहब्बत से ही खुश्बू, फूल, सूरज, चाँद होते हैं |
करें परवाह क्या वो मौसमों के रुख़ बदलने की | करें परवाह क्या वो मौसमों के रुख़ बदलने की | ||
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लकीरें अपने हाथों की बनाना हमको आता है | लकीरें अपने हाथों की बनाना हमको आता है | ||
वो कोई और होंगे अपनी क़िस्मत पे जो रोते हैं | वो कोई और होंगे अपनी क़िस्मत पे जो रोते हैं | ||
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+ | {द्विमासिक सुख़नवर, जनवरी-फरवरी 2010} | ||
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14:46, 27 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
हरी है ये ज़मीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं
हमीं से है हँसी सारी, हमीं पलकें भिगोते हैं
धरा सजती मुहब्बत से, गगन सजता मुहब्बत से
मुहब्बत से ही खुश्बू, फूल, सूरज, चाँद होते हैं
करें परवाह क्या वो मौसमों के रुख़ बदलने की
परिन्दे जो यहाँ परवाज़ पर तूफ़ान ढ़ोते हैं
अज़ब से कुछ भुलैंयों के बने हैं रास्ते उनके
पलट के फिर कहाँ आए, जो इन गलियों में खोते हैं
जगी हैं रात भर पलकें, ठहर ऐ सुब्ह थोड़ा तो
मेरी इन जागी पलकों में अभी कुछ ख़्वाब सोते हैं
मिली धरती को सूरज की तपिश से ये खरोंचे जो
सितारे रात में आकर उन्हें शबनम से धोते हैं
लकीरें अपने हाथों की बनाना हमको आता है
वो कोई और होंगे अपनी क़िस्मत पे जो रोते हैं
{द्विमासिक सुख़नवर, जनवरी-फरवरी 2010}