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+ | समझ गई शब्दों के रूप और भाव | ||
+ | और फिर शब्दों से पार पढ़े मन ! | ||
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+ | बन गया व्यसन ! | ||
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+ | भूख-प्यास जान रही , | ||
+ | अक्सर ही स्वेटर भी ! | ||
+ | पढ़-लिख, तैयार चरण छूते, | ||
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+ | कभी कमी नहीं पड़ी ! | ||
+ | यों ही बड़ी होती रही | ||
+ | मास्टर की छोरी ! | ||
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+ | उनके पास है क्या सिवा | ||
+ | फ़ालतू की बातों के | ||
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+ | क्या अचार डालेगी , | ||
+ | रीत-भाँत- दुनिया से कोरी ,-! | ||
+ | मास्टर की छोरी ! | ||
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+ | बुरा लगा , हुई दुखन! | ||
+ | जान गई अपना सच , | ||
+ | साध लिया बिछला मन ! | ||
+ | दुनिया को समझ रही | ||
+ | अपने से परख रही | ||
+ | मास्टर की छोरी ! | ||
+ | * | ||
+ | ब्याह गई ! | ||
+ | नये लोग नये ढंग ! | ||
+ | कमरोंवाला मकान, | ||
+ | लोक- व्यवहार , | ||
+ | सभी साज और सँवार ! | ||
+ | लेकिन किताबों बिन , | ||
+ | सूनी सी लगतीं रही | ||
+ | भरी अल्मारियाँ ! | ||
+ | * | ||
+ | चाह उठे बार-बार , | ||
+ | कभी एकान्त खोज, | ||
+ | मन चाही किताब खोल | ||
+ | पास धर लाई-चना | ||
+ | देर तक पढ़ती रहे शान्त - चुपचाप ! | ||
+ | कहीं रुके अनायास , | ||
+ | कुछ सोचती या गुनती रहे ! | ||
+ | मास्टर की छोरी ! | ||
+ | * | ||
+ | पढ़ती सभी के मन , | ||
+ | करने लगी जतन ! | ||
+ | ले अकेलापन | ||
+ | कौन जाने वह चुभन ! | ||
+ | पाट नहीं पा रही . | ||
+ | भीतर और बाहर के बीच बसी दूरी ! | ||
+ | मास्टर की छोरी ! | ||
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08:49, 28 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
विद्या का दान चले ,
जहाँ खुले हाथ ,
कन्या तो और भी
सरस्वती की जात !
और सिर पर पिता मास्टर का हाथ !
कंठ में वाणी भर ,
पहचान लिये अक्षर !
शब्दों की रचना
अर्थ जानने का क्रम !
समझ गई शब्दों के रूप और भाव
और फिर शब्दों से पार पढ़े मन !
जाने कहाँ कहाँ के छोर ,
गहरी गहरी डूब तक !
बन गया व्यसन !
मास्टर की छोरी !
पराये लगे न कभी ,
लड़के ,हर बार नये ,
घर में आ रहते रहे !
माता का मन उदार ,
भूख-प्यास जान रही ,
अक्सर ही स्वेटर भी !
पढ़-लिख, तैयार चरण छूते,
बिदा होते !
किसी को भी नहीं खला ,
कभी कमी नहीं पड़ी !
यों ही बड़ी होती रही
मास्टर की छोरी !
एक दिन किसी ने कहा -
उनके पास है क्या सिवा
फ़ालतू की बातों के
और इन किताबों के ?
क्या अचार डालेगी ,
रीत-भाँत- दुनिया से कोरी ,-!
मास्टर की छोरी !
बुरा लगा , हुई दुखन!
जान गई अपना सच ,
साध लिया बिछला मन !
दुनिया को समझ रही
अपने से परख रही
मास्टर की छोरी !
ब्याह गई !
नये लोग नये ढंग !
कमरोंवाला मकान,
लोक- व्यवहार ,
सभी साज और सँवार !
लेकिन किताबों बिन ,
सूनी सी लगतीं रही
भरी अल्मारियाँ !
चाह उठे बार-बार ,
कभी एकान्त खोज,
मन चाही किताब खोल
पास धर लाई-चना
देर तक पढ़ती रहे शान्त - चुपचाप !
कहीं रुके अनायास ,
कुछ सोचती या गुनती रहे !
मास्टर की छोरी !
*
पढ़ती सभी के मन ,
करने लगी जतन !
ले अकेलापन
कौन जाने वह चुभन !
पाट नहीं पा रही .
भीतर और बाहर के बीच बसी दूरी !
मास्टर की छोरी !