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"अग्नि-संभवा / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

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कृष्ण ,मेरे मीत !
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अग्नि संभव द्रौपदी मैं
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खड़ी अविचल !
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जल रही अनुताप में ,
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उद्दीप्त पल-पल,
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क्षुब्ध और! अशान्त !
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तुम तपन झेलो ,न कोई और !
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तुम शरण मेरी, न कोई और !
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दौड़  आते तुम्हीं बारंबार
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इस निर्वास- वन में
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छोड़ अपना राजसुख- रनिवास !
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धीर देने
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बाँटने को भार मन का ,
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प्रिय सखी  के  साथ !
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तुम परम आत्मीय
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मेरा हो न कोई और !
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टेरता मन कह रहा ,
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तुमसे मिले युग हो गये,
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ओ,मीत मेरे !
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तुम शऱण मेरी न कोई और !
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बंधु प्रिय मेरे ,
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सभी का एक माध्यम मै !
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स्वत्व मेरा कुछ नहीं !
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मैं बँटी हूँ !
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जुड़ूँ किससे ?
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अधूरी हूँ मैं सभी के साथ !
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मन से रहूं किसके पास !
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पति ,परस्पर बँधे बेबस ,
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एक असमंजस कि
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मैं हूँ डोर!
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कौन है ,जो समझ ले मेरी व्यथा को ,
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एक केवल तुम !
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न कोई और !
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तुम शऱण मेरी, न कोई और !
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मीत ,हर सामर्थ्य मेरी ,बन गई उपभोग
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दाँव पर  मैं और कब से चल रहा  यह खेल !
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वे परम गंभीर,मृदु ,संयत ;
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मुखर मैं ,कटु , असहनशील
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सब स्वीकार !
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किन्तु यह निर्लज्ज अत्याचार !
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और वह क्षण दुसह दारुण भयावह
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वह बीतता ही नहीं
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बनता एक हाहाकार !
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हो रहा  अपमान औ' उपहास
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पर वे सिर झुकाये साक्षी चुपचाप,
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मिथ्यादर्श की ले आड़!
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उस  सामर्थ्य को धिक्कार !
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नीति धर्म,विवेक सब  बेकार !
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किसे अब तक सके कभी उबार ?
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सभी को रख दो ,सुरक्षित कर पिटारी बंद
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खा जाये न  चोट उनका धर्म पा कर वार!
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इस विडंबन का कहाँ है पार !
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सिर्फ़ तुमने ही उबारा !
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तुम चुभन झेलो, न कोई और  ,
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तुम शऱण मेरी, न कोई और !
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और तुम ?
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जो सर्वथा ही भिन्न !
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जीवन -सहजता के मंत्र  !
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कौन से तुमने नियम या नीति मानी ?
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तोड़ सारी वर्जनायें
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एक तुमने ही 
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स्वयं को साक्षी कर,
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मानवी गरिमा न हो खंडित यहाँ
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सब रीति मर्यादा बदल दी
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और  जीवन भर तुम्हीं ने ,
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व्यर्थ के प्रतिबंध तोड़े,
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छलों के अनुबंध तोड़े
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सहज  हो कर बहे युग - धारा
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कि आरोपित सभी  पाखंड तोड़े !
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एक ही  संबंध तुमसे ,
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बस नहीं कुछ और !
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तुम शऱण मेरी, न कोई और !
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विगत और भविष्य तुम निर्बाध !
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विषम ,अँधे क्षणों में लो साध,
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सांत्वना के कुछ सहज उद्गार !
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जब निराशा हो चरम तब तुम खड़े हो साथ
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मीत मेरे , बस यही विश्वास !
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नहीं दैहिक कामना कोई हमारे बीच,
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और कुछ भी नहीं,
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जो कुछ और !
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तुम शऱण मेरी, न कोई और !
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शब्द सीमित
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अर्थ का विस्तार ,
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तुम तक पहुँच जायेगा !
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अजानी दूरियों को लाँघ
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मेरा मौन भी कह बहुत जायेगा !
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यही दृढ़ संबंध जो जोड़े हुये है
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और कुछ भी नहीं
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अपने बीच !
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तुम्हीं से उन्मुख ,
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न कोई और !
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तुम शरण मेरी, न कोई और !
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शब्द औ'संवेदना ही,
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और निष्कृति भी तुम्हीं से 1
 +
बस ,नहीं कुछ और !
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तुम परम आत्मीय, सतत समीप ,
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तुम तपन झेलो, न कोई और !
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तुम शरण मेरी, न कोई और !
  
 
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08:55, 28 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

कृष्ण ,मेरे मीत !
अग्नि संभव द्रौपदी मैं
खड़ी अविचल !
जल रही अनुताप में ,
उद्दीप्त पल-पल,
क्षुब्ध और! अशान्त !
तुम तपन झेलो ,न कोई और !
तुम शरण मेरी, न कोई और !


दौड़ आते तुम्हीं बारंबार
इस निर्वास- वन में
छोड़ अपना राजसुख- रनिवास !
धीर देने
बाँटने को भार मन का ,
प्रिय सखी के साथ !
तुम परम आत्मीय
मेरा हो न कोई और !
टेरता मन कह रहा ,
तुमसे मिले युग हो गये,
ओ,मीत मेरे !
तुम शऱण मेरी न कोई और !


बंधु प्रिय मेरे ,
सभी का एक माध्यम मै !
 स्वत्व मेरा कुछ नहीं !
 मैं बँटी हूँ !
जुड़ूँ किससे ?
अधूरी हूँ मैं सभी के साथ !
मन से रहूं किसके पास !
पति ,परस्पर बँधे बेबस ,
एक असमंजस कि
मैं हूँ डोर!
कौन है ,जो समझ ले मेरी व्यथा को ,
एक केवल तुम !
न कोई और !
तुम शऱण मेरी, न कोई और !


मीत ,हर सामर्थ्य मेरी ,बन गई उपभोग
दाँव पर मैं और कब से चल रहा यह खेल !
वे परम गंभीर,मृदु ,संयत ;
मुखर मैं ,कटु , असहनशील
सब स्वीकार !
किन्तु यह निर्लज्ज अत्याचार !
और वह क्षण दुसह दारुण भयावह
 वह बीतता ही नहीं
 बनता एक हाहाकार !
हो रहा अपमान औ' उपहास
पर वे सिर झुकाये साक्षी चुपचाप,
मिथ्यादर्श की ले आड़!
उस सामर्थ्य को धिक्कार !
नीति धर्म,विवेक सब बेकार !
किसे अब तक सके कभी उबार ?
सभी को रख दो ,सुरक्षित कर पिटारी बंद
खा जाये न चोट उनका धर्म पा कर वार!
 इस विडंबन का कहाँ है पार !
 सिर्फ़ तुमने ही उबारा !
 तुम चुभन झेलो, न कोई और ,
तुम शऱण मेरी, न कोई और !


और तुम ?
जो सर्वथा ही भिन्न !
जीवन -सहजता के मंत्र  !
कौन से तुमने नियम या नीति मानी ?
तोड़ सारी वर्जनायें
एक तुमने ही
स्वयं को साक्षी कर,
मानवी गरिमा न हो खंडित यहाँ
सब रीति मर्यादा बदल दी
और जीवन भर तुम्हीं ने ,
व्यर्थ के प्रतिबंध तोड़े,
छलों के अनुबंध तोड़े
सहज हो कर बहे युग - धारा
कि आरोपित सभी पाखंड तोड़े !
एक ही संबंध तुमसे ,
बस नहीं कुछ और !
तुम शऱण मेरी, न कोई और !


विगत और भविष्य तुम निर्बाध !
 विषम ,अँधे क्षणों में लो साध,
सांत्वना के कुछ सहज उद्गार !
जब निराशा हो चरम तब तुम खड़े हो साथ
मीत मेरे , बस यही विश्वास !
नहीं दैहिक कामना कोई हमारे बीच,
और कुछ भी नहीं,
जो कुछ और !
तुम शऱण मेरी, न कोई और !


शब्द सीमित
अर्थ का विस्तार ,
तुम तक पहुँच जायेगा !
अजानी दूरियों को लाँघ
मेरा मौन भी कह बहुत जायेगा !
यही दृढ़ संबंध जो जोड़े हुये है
और कुछ भी नहीं
अपने बीच !
तुम्हीं से उन्मुख ,
न कोई और !
तुम शरण मेरी, न कोई और !


शब्द औ'संवेदना ही,
और निष्कृति भी तुम्हीं से 1
बस ,नहीं कुछ और !
तुम परम आत्मीय, सतत समीप ,
तुम तपन झेलो, न कोई और !
तुम शरण मेरी, न कोई और !