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"जीवन-संगीत / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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जीवन संगीत

कंचन थाल सजा सौरभ से
ओ फूलों की रानी!
अलसाई-सी चली कहो,
करने किसकी अगवानी?

वैभव का उन्माद, रूप की
यह कैसी नादानी!
उषे! भूल जाना न ओस की
कारुणामयी कहानी।

ज़रा देखना गगन-गर्भ में
तारों का छिप जाना;
कल जो खिले आज उन फूलों
का चुपके मुरझाना।

रूप-राशि पर गर्व न करना,
जीवन ही नश्वर है;
छवि के इसी शुभ्र उपवन में
सर्वनाश का घर है।

सपनों का यह देश सजनि!
किसका क्या यहाँ ठिकाना?
पाप-पुण्य का व्यर्थ यहाँ
बुनते हम ताना-बाना।

प्रलय-वृन्त पर डोल रहा है
यह जीवन दीवाना,
अरी, मौत का निःश्वासों से
होगा मोल चुकाना।

सर्वनाश के अट्टहास से
गूँज रहा नभ सारा;
यहाँ तरी किसकी छू सकती
वह अमरत्व-किनारा?

एक-एक कर डुबो रहा
नावों को प्रलय अकेला,
और इधर तट पर जुटता है
वैभव-मद का मेला।

सृष्टि चाट जाने को बैठी
निर्भय मौत अकेली;
जीवन की नाटिका सजनि! है
जग में एक पहेली।

यहाँ देखता कौन कि यह
नत-मस्तक, वह अभिमानी?
उठता एक हिलोर, डूबते
पंडित औ अज्ञानी।

यह संग्रह किस लिए? हाय,
इस जग में क्या अक्षय है?
अपने क्रूर करों से छूता
सब को यहाँ प्रलय है।

लो, वह देखो, वीर सिकन्दर
सारी दुनिया छोड़,
दो गज़ ज़मीं ढूँढ़ने को
चल पड़ा कब्र की ओर।

सोमनाथ-मंदिर का सोना
ताक रहा है राह,
ओ महमूद! कब्र से उठकर
पहनो जरा सनाह।

सुनते नहीं रूस से लन्दन
तक की यह ललकार?
बोनापार्ट! हिलेना में
सोये क्यों पाँव पसार?

और, गाल के फूलों पर क्यों
तू भूली अलबेली?
बिना बुलाये ही आती
होगी वह मौत सहेली।

सुंदरता पर गर्व न करना
ओ स्वरूप की रानी!
समय-रेत पर उतर गया
कितने मोती का पानी।

रंथी-रथ से उतर चिता
का देखोगी संसार,
जरा खोजना उन लपटों में
इस यौवन का सार।

प्रिय-चुम्बित यह अधर और
उन्नत उरोज सुकुमार सखी!
आज न तो कल श्वान-शृगालों
के होंगे आहार सखी!

दो दिन प्रिय की मधुर सेज पर
कर लो प्रणय-विहार सखी?
चखना होगा तुम्हें एक दिन
महाप्रलय का प्यार सखी!

जीवन में है छिपा हुआ
पीड़ाओं का संसार सखी!
मिथ्या राग अलाप रहे हैं
इस तंत्री के तार सखी!

जिस दिन माँझी आयेगा
ले चलने को उस पार सखी!
यह मोहक जीवन देना
होगा उसको उपहार सखी!

जीवन के छोटे समुद्र में
बसी प्रलय की ज्वाला,
अमिय यहीं है और यहीं
वह प्राण-घातिनी हाला।

इस चाँदनी बाद आयेगा
यहाँ विकट अँधियाला,
यही बहुत है, छलक न पाया
जो अब तक यह प्याला।

हरा-भरा रह सका यहाँ पर
नहीं किसी का बाग सखी!
यहाँ सदा जलती रहती है
सर्वनाश की आग सखी!

१९३३