भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"परीशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए / इक़बाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: परीशाँ होके मेरी खाक आखिर दिल न बन जाये जो मुश्किल अब हे या रब फिर …)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
परीशाँ होके मेरी खाक आखिर दिल न बन जाये
+
परीशाँ होके मेरी खाक आखिर दिल न बन जाये<br />
 
जो मुश्किल अब हे या रब फिर वही मुश्किल न बन जाये
 
जो मुश्किल अब हे या रब फिर वही मुश्किल न बन जाये
+
 
न करदें मुझको मज़बूरे नवा फिरदौस में हूरें
+
न करदें मुझको मज़बूरे नवा फिरदौस में हूरें<br />
 
मेरा सोज़े दरूं फिर गर्मीए महेफिल न बन जाये
 
मेरा सोज़े दरूं फिर गर्मीए महेफिल न बन जाये
+
 
कभी छोडी हूई मज़िलभी याद आती है राही को
+
कभी छोडी हूई मज़िलभी याद आती है राही को<br />
 
खटक सी है जो सीने में गमें मंज़िल न बन जाये
 
खटक सी है जो सीने में गमें मंज़िल न बन जाये
 
   
 
   
कहीं इस आलमें बे रंगो बूमें भी तलब मेरी
+
कहीं इस आलमें बे रंगो बूमें भी तलब मेरी<br />
 
वही अफसाना दुन्याए महमिल न बन जाये
 
वही अफसाना दुन्याए महमिल न बन जाये
+
 
अरूज़े आदमे खाकी से अनजुम सहमे जातें है
+
अरूज़े आदमे खाकी से अनजुम सहमे जातें है<br />
 
कि ये टूटा हुआ तारा महे कामिल न बन जा
 
कि ये टूटा हुआ तारा महे कामिल न बन जा

14:44, 1 मार्च 2011 के समय का अवतरण

परीशाँ होके मेरी खाक आखिर दिल न बन जाये
जो मुश्किल अब हे या रब फिर वही मुश्किल न बन जाये

न करदें मुझको मज़बूरे नवा फिरदौस में हूरें
मेरा सोज़े दरूं फिर गर्मीए महेफिल न बन जाये

कभी छोडी हूई मज़िलभी याद आती है राही को
खटक सी है जो सीने में गमें मंज़िल न बन जाये

कहीं इस आलमें बे रंगो बूमें भी तलब मेरी
वही अफसाना दुन्याए महमिल न बन जाये

अरूज़े आदमे खाकी से अनजुम सहमे जातें है
कि ये टूटा हुआ तारा महे कामिल न बन जा