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9-'''विराट-हृदय,''' प्रकाशक अलनन्दा-मंदाकिनी प्रकाशन, लक्षमण भवन हुसैन गंज, लखनऊ
 
 
'''विशेष पड़ताल /दस्तावेज'''
 
'''उस विलक्षण कुंवर के कुछ पत्र!'''
आलेखः-अशोक कुमार शुक्ला
गढवाल जनपद के चमोली नामक स्थान मे मालकोटी नाम के ग्राम में एक निष्ठावान अध्यापक श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर पर जिस बालक का जन्म हुआ था कदाचित उसके संबंध में यह कभी नहीं सोचा गया था कि सन् 2011 में अपनी मृत्यु के 64 वर्ष बाद (इनकी मृत्यु 14 सितम्बर 1947 को हुयी) उत्तराखंड की दस शीर्ष विभूतियों में उसकी गणना की जायेगी। हाल ही में ‘तहलका’ पत्रिका द्वारा उत्तराखंड की दस शीर्षस्थ विभूतियों में पहाड के इस कालिदास को चुना गया है। (तहलका फरवरी 2011)
 
इनकी कविताओं के सम्बन्ध में तेा बहुत कुछ लिखा जा चुका है और अनेक शोध हो चुके हैं परन्तु उनकी गद्य रचनाओ के सम्बन्ध में अब तक कम ही लिखा गया है। कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल शोध संस्थान के सर्व श्री डॉ0 योगंबर सिंह बर्त्वाल ‘तुंगनाथी’ द्वारा तहलका के लेख में कविवर की डायरी के एक अंश केा उदधृत करते हुये कहा गया है कि कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल की डायरी में एक स्थान पर लिखा हैः-
 
मेरा ध्येय हिंदी की सेवा करना होगा। मेरा आजन्म प्रयास होगा कि हिंदी को कोई नयी चीज भेंट करूं जो मेरे ही घर की बनी हो, विलायत जापान से बनकर नहीं आयी हो।
डायरी के पृष्ठ पर अंकित तिथि 6 मार्च, 1938
 
चन्द्रकुंवर बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। हिन्दी साहिन्य के भण्डार की समृद्वि और हिन्दी काव्य जगत मंे उनका योगदान विशेष उल्लेखनीय है। हिमालय का सौंदर्य और उसके विविध चित्र उनके काव्य में यत्र तत्र अनायास ही बिखरे मिल जाते है। वे मूलतः कवि थे। इसलिये गीत और कवितायंे उन्होने मुख्य रूप से लिखी हैं। अव तक उपलब्ध और अन्वेषित रचनाओं के आधार पर कह जा सकता है कि उन्होने लगभग आठ सैा से अधिक गीत ओर कवितायें लिखी । इसके अतिरिक्त करीब 25 से अधिक गद्य रचनायें की , जिनमें कहानी, एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनाऐं प्रमुख हैं।
 
महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी चन्द्र कुवर बर्त्वाल की धनिष्ठता थी। '''उत्तराखण्ड भारती त्रैमासिक''' जनवरी से मार्च 1973 के पृष्ठ 67 में यह अंकित है कि वे निराला जी के साथ तो 1939 से 1942 तक अपना सधर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था । दिसम्बर 1941 में जब श्री बर्त्वाल पहाडों की ओर वापिस लौट आये थे तो उन्होंने महाप्राण निरला को कविता में लिखकर एक पत्र प्रेषित किया था जो गढवाल विश्वविद्यालय में डा0 हर्षमणि भट्ट के द्वारा निष्पादित शोध प्रबंध में उद्धृत हुआ है। यह पूर्णतः कविता मय पत्र मृत्यंुजय इस प्रकार हैः-
 
हे महाप्राण
''' ’मृृत्यंुजय’,'''
(चन्द्रकुंवर द्वारा कविता के रूप में पत्र लिखा गया था)
सहो अमर कवि! सहो अत्याचार सहो जीवन के,
सहो धरा के कंटक, निष्ठुर वज्र गगन के।
कुपित देवता हैं तुम पर हे कवि! गा गा कर
क्योंकि अमर करते तुम दुख सुख मर्त्य भुवन के,
कुपित दास हैं तुम पर, क्योंकि न तुमने अपना
शीश झुकाया, तुम ने राग मुक्ति का गाया,
छंदों और प्रथाओं के निर्मल बंधन में
थ्कसी भांति भी बंध न सकी ऊंचे शैलों से
गरज गरज आती हुई तुम्हारे निर्मल
और स्वच्छ गीतों की वज्र हास सी काया।
निर्धनता को सहो, तुम्हारी यह निर्धनता
एक मात्र निधि , होगी, कभी देश जीवन की।
अश्रु बहाओ, दिपी तुम्हारे अश्रु कणों में,
एक अमर वह शक्ति न जिस को मंद करेगी,
म्लिन पतन से भरी रात सुनसान, मरण की।
टंजलियां भर भर सहर्ष पीओ जीवन का
तीक्ष्ण हलाहल, और न भली सुधा सात्विकी,
पीने में विष सी लगती हैं, किन्तु पान कर
मृत्युंजय कर देती है मानव जीवन को।
आपका परमस्नेही चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
 
महाप्राण निराला तत्समय बिहार की यात्रा पर गये थे इसलिये उन्हें यह पत्र अपनी बिहार यात्रा से लौटने के बाद प्राप्त हुआ जिसके बाद उन्होंने हिमवंत के कवि को जो उत्तर भेजा उसे यहां उदृधृत किया जा रहा है यह पत्र भी गढवाल विश्वविद्यालय में डा0 हर्षमणि भट्ट के निष्पादित शोध प्रबंध में उद्धृत हुआ है।
भूसा मंडी, हाथीखाना, लखनऊ,
 
दिनांक 30- 03- 42
प्रिय श्री चन्द्रकुंवर जी,
 
मैं बिहार गया था , अस्वस्थ लौटा। आपके प्रिय पत्र का समय पर उत्तर नहीं जा सका। मेरे लिये चिन्ता न करें । मैं इसी तरह मजे में रहता हूं। आप जल्द स्वस्थ हो जायं यह हमारे स्वास्थ्य का मुख्य कारण होगा। अपने समाचार अवश्य दें। आर्थिक अधिक असुविधा हो तो सूचित करने से संकोच न करें। मेरी दो पुस्तिकाऐं छप रही हैं निकल जाने पर आपके पास भेजूंगा। आप की आकांक्षांये अवश्य पूरी होगीं चित्त शान्ति रखें। मेरे सौकर्य का आप के साथ पूरा सहयोग है। यहां इस समय अन्न की मंहगी बढी है। समय अच्छा है। आकाश साफ रहता है, सर्दी गर्मी दुखदायक नहीं , लिखने पढने के अनुकूल है। कागज कलम वाला व्यवसाय बहुत मन्द हैं लोग एक भयानक परिवर्तन की ओर जैसे त्रास से देख रहे हों।आशा है आपके समाचार जल्द मिलेंगे।
सस्नेह
 
सूर्यकांत त्रिपाठी‘निराला’
 
लखनऊ से पहाड़ लौटने के पश्चात कविवर अपने मित्र पं0 शंभूप्रसाद बहुगुणा को भी लगातर पत्र लिखा करते थे। आठ सितम्बर 1942 ई0 को लिखे ऐसे ही एक पत्र में कवि ने कविता के संबंध में अपनी मान्यता का खुलासा किया है जिसका कुछ अंश यहां उदृधृत हैः-
 
दिनांक 08- 09- 42
प्रिय श्री ..... जी,
 
कविता यदि मुझे भुला न दे तो मैं कुछ भी खोया हुआ नहीं मानूंगा और मुझे तनिक भी दुख नहीं होगा। हृदय की उसी एकान्त इच्छा को पूरी तरह से पाने के लिये मैं जानबूझ कर कठिन दुख के रास्ते पर चल रहा हूं। हो सकता है कि अकाल मृत्यु मेरी कामनाओं को कुचल दे, हो सकता है कि जब सिद्धि मुझे मिले तब उसे उपभोग करने की सामर्थ्य मेरे शरीर में न हो, फिर भी मुझे इस बात का संतोष रहेगा कि जीवन के प्रभात काल में जिस देवी के चरणों पर मैने अपना सिर रखा था, उसकी मैने सदा पूजा की, उसको मैने सदा प्यार किया...........किशोरावस्था में तुमने उस मंदिर तक जाने में मदद दी, जहां आंखों में आंसू भर कर वह देवकन्या रहती थी। इस बात को न तो मैं भूला हूं और न ही कभी भूल सकूंगा।
(यह पत्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा द्वारा संपादित ‘मेघ नंदिनी’ के पृष्ठ 101 से साभार उदृधृत किया गया है)
 
लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पांच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को ही मुखर किया। अपने दुखों के सम्बन्ध में आजादी के ठीक पहले कथाकार यशपाल केा भेजे गये एक पत्र 27 जनवरी 1947 को उन्होंने लिखा थाः-
 
दिनांक 27 जनवरी 1947
 
प्रिय यशपाल जी,
 
अत्यंत शोक है कि मैं मृत्युशैया पर पडा हुआ हूॅ और बीस- पच्चीस दिन अधिक से अधिक क्या चलूंगा.....................सुबह को एक दो घंटे बिस्तर से मै उठ सकता हूॅ और इधर उधर अस्यव्यस्त पडी कविताओं को एक कापी पर लिखने की कोशिश करता हूॅ। बीस - पच्चीस दिनों में जितना लिख पाऊंगा, आपके पास भेज दूंगा।
(यह पत्र गढवाल विश्वविद्यालय में डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध प्रबंध में उद्धृत हुआ है।)
 
और सचमुच इन शब्दों को लिखने के बाद सदा सदा के लिये इस लोक को छोड दिया और कभी जागकर न उठने के सो गया।
 
साहित्यकार मंगलेश डबराल उनके संबंध में लिखते हैः-
 
‘‘ कई साल पहले पडी चंद्र कुंवर बर्त्वाल की दो पंक्तियां- ‘अपने उद्गम को लौट रही, जीवन की नदियां मेरी’ आज भी मुझे विचलित कर देती हैं।’’
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