"रक़ीब से / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" के अवतरणों में अंतर
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14:02, 7 मार्च 2011 का अवतरण
आ, के वाबस्तः हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीखानः बना रखा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दह्र को दह्र का अफ़साना बना रखा था
आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इ’नायत की है
कारवां गुज़रे हैं जिनसे उसी रा'नाई के
जिसकी इन आँखों ने बे-सूद इ’बादत की है
तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिनमें
उसकी मलबूस की अफ़सुर्दः महक बाक़ी है
तुझ पर भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिसमें बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
तूने देखी है वो पेशानी वो रुख़सार वो होंठ
ज़िन्दगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझको मा’लूम है क्यों उ’म्र गँवा दी हमने
हम पे मुश्तरिका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान केः गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ मेम क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
आजिज़ी<ref>विनम्रता</ref> सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यासो-हिरमान<ref>आशा व निराशा</ref> के दुख-दर्द के मा’नी सीखे
ज़ेरदस्तों के मसाइब<ref>निर्बलों की व्यथाएँ</ref> को समझना सीखा
सर्द आहों के रुख़े-ज़र्द<ref>पीला चेहरा</ref> के मा’नी सीखे
जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आँखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों<ref>शक्तिहीन</ref> के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब<ref>गरुड़</ref>
बाजू तोले हुए मँडलाते हुए आते हैं
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का ग़ोश्त
शाहराहों<ref>राजपथ</ref> पे ग़रीबों का लहू बहता है
या कोई तोंद का बढ़ता हुआ सैलाब लिए
फ़ाक़ामस्तों<ref>भूख में मस्त रहने वाला</ref> को डुबोने के लिए कहता है
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे काबू ही नहीं रहता है