"एक रहगुज़र पर / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" के अवतरणों में अंतर
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− | वो हुस्न जिसकी तमन्ना में जन्नतें | + | वो जिसकी दीद में लाखों मसर्रतें<ref>ख़ुशियाँ</ref> पिन्हाँ |
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गुदाज़-जिस्म, क़बा जिस पे सज के नाज़ करे | गुदाज़-जिस्म, क़बा जिस पे सज के नाज़ करे | ||
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किसी ज़माने में इस रहगुज़र से गुज़रा था | किसी ज़माने में इस रहगुज़र से गुज़रा था | ||
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14:08, 7 मार्च 2011 के समय का अवतरण
वो जिसकी दीद में लाखों मसर्रतें<ref>ख़ुशियाँ</ref> पिन्हाँ
वो हुस्न जिसकी तमन्ना में जन्नतें पिन्हाँ
हज़ार फित्ने<ref>उपद्रव</ref> तहे-पा-ए-नाज़<ref>सुंदरता के पैर के नीचे</ref> ख़ाकनशीं
हर एक निगाह ख़मारे-शबाब<ref>यौवन-मद</ref> से रंगीं
शबाब, जिससे तख़य्युल<ref>कल्पना</ref> पे बिजलियाँ बरसें
विक़ार<ref>गरिमा</ref> जिसकी रक़ाबत<ref>साथ</ref> को शोख़ियाँ तरसें
अदा-ए-लग़्ज़िशे-पा<ref>पैरों के काँपने का ढंग</ref> पर क़यामतें क़ुर्बां
बयाज़े-रुख़<ref>चेहरे का गोरा रंग</ref> पे सहर की सबाहतें<ref>सफ़ेदी, रौशनी</ref> क़ुर्बां
सियाह ज़ुल्फ़ों में वारफ़्तः<ref>बहती हुई</ref> नकहतों<ref>सुगंध</ref> तो हुजूम
तवील रातों की ख़्वाबीदः राहतों का हुजूम
वो आँख जिसके बना’व पे ख़ालिक<ref>सृष्टा</ref> इतराये
ज़बाने-शे’र को तारीफ़ करते शर्म आये
वो होंठ फ़ैज़ से जिनके बहारे-लालःफरोश
बहिश्त-ओ-कौसर-ओ-तसनीम-ओ-सलसबील<ref>जन्नत और उसकी नहरें</ref> ब-दोश<ref>कंधे पर लिए हुए</ref>
गुदाज़-जिस्म, क़बा जिस पे सज के नाज़ करे
दराज़ क़द जिसे सर्वे-सही<ref>सर्व के सीधे पेड़</ref> नमाज़ करे
ग़रज़ वो हुस्न जो मोहताज-ए-वस्फ़-ओ-नाम<ref>परिचय या नाम का मुहताज</ref> नहीं
वो हुस्न जिसका तस्सवुर बशर<ref>मनुष्य</ref> का काम नहीं
किसी ज़माने में इस रहगुज़र से गुज़रा था
ब-सद-ग़ुरूरो-तजम्मुल<ref>सैकड़ों अभिमान और रूप लेकर</ref> इधर से गुज़रा था
और अब ये राहगुज़र भी है दिलफरेब-ओ-हसीं
है इसकी ख़ाक मे कैफ़-ए-शराब-ओ-शे’र<ref>मदिरा और कविता की मादकता</ref> मकीं<ref>बसा हुआ</ref>
हवा मे शोख़ी-ए-रफ़्तार<ref>चाल की चंचलता</ref> की अदाएँ हैं
फ़ज़ा मे नर्मी-ए-गुफ़्तार<ref>वाणी की कोमलता</ref> की सदाएँ हैं
गरज़ वो हुस्न अब इस जा का ज़ुज़्वे-मंज़र<ref>दृश्य का अंश</ref> है
नियाज़-ए-इश्क़<ref>प्रेम की कामना</ref> को इक सिज्दःगह मयस्सर है