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देहु काम-रिपु!राम-चरन-रति। | देहु काम-रिपु!राम-चरन-रति। | ||
तुलसिदास प्रभु! हरहु भेद-मति।। | तुलसिदास प्रभु! हरहु भेद-मति।। | ||
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+ | छेव देव | ||
+ | मोह-तम-तरणि, हर, रूद्र, शंकर, शरण, हरण-मम शोक, लोकाभिरामं। | ||
+ | बाल-शशि-भाल, सुविशाल लोचन-कमल, काम-सतकोटि-लावण्य-धामं।ं | ||
+ | कंबं-कुंदंेदु-कर्पूा -विग्रह रूचिर, तरूण-रवि-कोटि तनु तेज भ्राजै। | ||
+ | भस्म सर्वांग अर्धांग शैलत्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै।। | ||
+ | मौलिसंकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर-वारि हरि -चरण-पूतं। | ||
+ | श्रवण कुंडल गरल कंठ, करूणाकंद, सच्चिदानंद वंदेऽवधूतं।। | ||
+ | शूल-शायक, पिनाकासि-कर, शत्रु-वन-दहन इव धूमघ्वज, वृषभ-यानं। | ||
+ | व्याघ्र-गज-चर्म परिधान, विज्ञान-घन, सिद्ध-सुर-मुनि-मनुज-सेव्यमानं।। | ||
+ | तांडवित-नृत्यपर,डमरू डिंडिम प्रवर, अशुभ इव भाति कल्याणराशी। | ||
+ | महाकल्पांत ब्रह्मांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसीन काशी।। | ||
+ | तज्ञ, सर्वज्ञ, यज्ञेश, अच्युत, विभो, विश्व भवदंशसंभव पुरारी। | ||
+ | ब्रह्मेंन्द्र, चंद्रार्क, वरूणाग्नि, वसु मरूत,यम, अर्चि भवदंघ्रि सर्वाधिकारी।। | ||
+ | अकल,निरूपाधि, निर्गुण , निरंजन, ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं। | ||
+ | अखिलविग्रह, उग्ररूप, शिव, भूपसुर, सर्वगत, शर्व , सर्वोपकारं।। | ||
+ | ज्ञान-वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य शिव! सानुकूलं। | ||
+ | तदपि नरमूढ आरूढ संसार-पथ, भृमत भव, विमुख तव पादमूलं।। | ||
+ | नष्टमति, दुष्ट अति , कष्ट-रत, खेद-गत, दास तुलसी शंभु-शरण आया। | ||
+ | देहि कामारि! श्रीराम-पद-पंकजे भक्ति अनवरत गत-भेद-माया।। | ||
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+ | |||
+ | सदा - | ||
+ | शंकरं, शंप्रदं, सज्जनानंददं, शैल-कन्या-वरं, परमरम्यं। | ||
+ | काम-मद-मोचनं, तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भावगम्यं।। | ||
+ | कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं, सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं। | ||
+ | सिंद्ध-सनकादि-योगीन्द्र-वृंदारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं।। | ||
+ | ब्रह्म-कुल-वल्लभं, सुलभ मति दुर्लभं, विकट-वेषं, विभुं, वेदपारं। | ||
+ | नौमि करूणाकरं, गरल-गंगाधरं, निर्मलं, निर्गुणं, निर्विकारं।। | ||
+ | लोकनाथं, शोक-शूल-निर्मूलिनं, शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं। | ||
+ | कालकालं, कलातीतमजरं, हरं, कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं।। | ||
+ | तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं, सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं। | ||
+ | प्रचुर-भव-भंजनं, प्रणत-जन-रंजनं, दास तुलसी शरण सानुकूलं।। | ||
+ | (13) | ||
+ | |||
+ | स्ेावहु सिव-चरन-सरोज-रेनु। | ||
+ | कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनु।। | ||
+ | कर्पूर-गौर, करूना-उदार। | ||
+ | संसार-सार, भुजगेन्द्र-हार।। | ||
+ | सुख-जन्मभूमि, महिमा अपार। | ||
+ | निर्गुन, गुननायक, निराकार।। | ||
+ | त्रयनयन, मयन-मर्दन महेस। | ||
+ | अहँकार-निहार-उदित दिनेस।। | ||
+ | बर बाल निसाकर मौलि भ्राज। | ||
+ | त्रैलोक-सोकहर प्रमभराज।। | ||
+ | जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल। | ||
+ | तिन्ह की गति कासीपति कृपाल।। | ||
+ | उपकारी कोऽपर हर-समान। | ||
+ | सुर-असुर जरत कृत गरल पान।। | ||
+ | बहु कल्प उपायन करि अनेक। | ||
+ | बिनु संभु-कृपा नहिं भव-बिबेक।। | ||
+ | बिग्यान-भवन, गिरिसुता-रमन। | ||
+ | कह तुलसिदास मम त्राससमन।। | ||
+ | (जारी) | ||
+ | (15) | ||
+ | |||
+ | दुसह दोषं-दुचा,दति, करू देवि दाया। | ||
+ | विश्व- मूलाऽसि, जन- सानुकूलाऽसि, कर शूलधारिणि महामूलमाया।1। | ||
+ | तडित गर्भांग सर्वंाग सुन्दर लसत, दिव्य पट भूषण विराजैं। | ||
+ | बालमृग-मंजु खंजन- विलोचनि, चन्द्रवदनि लखि कोटि रतिमार लाजैं।2। | ||
+ | रूप-सुख-शील-सीमाऽसि, भीमाऽसि,रामाऽसि, वामाऽसि वर बुद्धि बानी। | ||
+ | छमुख-हेरंब-अंबासि, जगदंबिके, शंभु-जायासि जय जय भवानी।3। | ||
+ | चंड-भुजदंड-खंडनि, बिहंडनि महिष मुंड -मद- भंग कर अंग तोरे। | ||
+ | शुंभु -निःशुंभ-कुम्भीश रण-केशरिणि, क्रोध-वारीश अरि -वृन्द बोरे।4। | ||
+ | निगम आगम-अगम गुर्वि! तव गुन-कथन, उर्विधर करत जेहि सहस जीहा। | ||
+ | देहि मा, मोहि पन प्रेम यह नेम निज, राम घनश्याम तुलसी पपीहा।5। | ||
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+ | छीन, जय जय जगजननि देवि सुर-नर-मुनि-असुर-सेवि, | ||
+ | भुक्ति-मुक्ति-दायिनी, भय-हरणि कालिका। | ||
+ | मंगल-मुद-सिद्वि-सदनि, पर्वशर्वरीश-वदनि, | ||
+ | ताप-तिमिर-तरूण-तरणि-किरणमालिका।। | ||
+ | वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल-शेल -धनुषबाण, | ||
+ | धरणि, दलनि दानव-दल, रण-करालिका। | ||
+ | पूतना-पिंशाच-प्रेत-डाकिनि-शाकिनि-समेत, | ||
+ | भूत-ग्रह-बेताल-खग-मृगालि-जालिका।। | ||
+ | जय महेश-भामिनी, अनेक-रूप-नामिनी, | ||
+ | समस्त-लोक-स्वामिनी, हिमशैल-बालिका। | ||
+ | रघुपति-पद परम प्रेम, तुलसी यह अजल नेम, | ||
+ | देहु ह्वै प्रसन्न पाहि प्रणत-पालिका।। | ||
+ | (17) | ||
+ | |||
+ | जय जय भगीरथ नन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दनि, | ||
+ | नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जहनु बालिका। | ||
+ | बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि, | ||
+ | त्रिपथ गासि, पुन्रूरासि, पाप-छालिका।1। | ||
+ | बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि, | ||
+ | भँवर बर, बिभंगतर तरंग-मालिका। | ||
+ | पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार, | ||
+ | भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका।2। | ||
+ | थ्नज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग, | ||
+ | कीट,जटिल तापस सब सरिस पालिका। | ||
+ | तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुवंस-बीर, | ||
+ | बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका।3। | ||
+ | (जारी) | ||
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+ | (21) | ||
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+ | ज्मुना ज्यों ज्यों लागी बाढ़न। | ||
+ | त्यों त्यों सुकृत-सुभट कलि भूपहिं, निदरि लगे बहु काढ़न।1। | ||
+ | ज्यों ज्यों जल मलीन त्यों त्यों जमगन मुख मलीन लहै आढ़ न | ||
+ | तुलसिदास जगदघ जवास ज्यों अनघमेघ लगे डाढ़न।2। | ||
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+ | (22) | ||
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+ | स्ेाइअ सहित सनेेह देह भरि,कामधेनु कलि कासी। | ||
+ | समनि सोक संताप पाप रूज, सकल-सुमंगल-रासी।1। | ||
+ | मरजादा चहुँ ओर चरनबर, सेवत सुरपुर-बासी। | ||
+ | तीरथ सब सुभ अंग रोम सिवलिंग अमित अविनासी।2। | ||
+ | अंतरऐन ऐन भल, थन फल, बच्छ बेद-बिस्वासी। | ||
+ | गलकंबल बरूना बिभा िजनु, लूम लसति, सरिताऽसि।3। | ||
+ | दंड पानि भैरव बिषान,तलरूचि-खलगन-भयदा-सी। | ||
+ | लोलदिनेस त्रिलोचन लोचन, करनघंट घंटा-सी।4। | ||
+ | मनिकर्निका बदन-ससि सुंदर, सुसरि-सुख सुखमा-सी। | ||
+ | स्वारथ परमारथ परिपूरन,पंचकोसि महिमा-सी।5। | ||
+ | बिस्वनाथ पालक कृपालुचित7 लालति नित गिरजा-सी। | ||
+ | सिद्धि, सची, सारद पूजहिं मन जोगवति रहति रमा-सी। | ||
+ | पंचााच्छरी प्रान7 मुद माधव7 गब्य सुपंचनदा-सी। | ||
+ | ब्रह्म-जीव-सम रामनाम जुग, आखर बिस्व बिकासी।7। | ||
+ | चारितु चरिति करम कुकरम करि, मरत जीवगन घासी। | ||
+ | लहत परम पद प्य पावन, जेहि चहत प्रपंच- उदासी।8। | ||
+ | कहत पुरान रची केसव निज कर-करतूति कला -सी। | ||
+ | तुलसी बसि हरपुरी राम जपु, जो भयो चहै सुपासी।9। | ||
+ | |||
+ | (23) | ||
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+ | सब सोच-बिमोचन चित्रकूट। कलिहरन, करन कल्यान बूट।1। | ||
+ | सुचि अवनि सुहावनि आलबाल। कानन बिचित्र, बारी बिसाल।2। | ||
+ | मंदाकिनि-मालिनि सदा सींच। बर बारि, बिषम नर-नारि नीच।3। | ||
+ | साखा सुसृंग, भूरूह -सुपात। निरझर मधुबरद्व मृदु मलय बात।4। | ||
+ | सुक,पिक, मधुकर, मुनिबर बिहारू। साधन प्रसून फल चारि चारू।5। | ||
+ | भव-घोरघाम-हर सुखद छाँह। थप्यो थिर प्रभाव जानकी-नाह।6। | ||
+ | साधक-सुपथिक बड़े भाग पाइ। पावत अनेक अभिमत अघाइ।7। | ||
+ | रस एक, रहित-गुन-करम-काल। सिय राम लखन पालक कृपाल।8। | ||
+ | तुलसी जो राम पद चाहिय प्रेम। सेइय गिरि करि निरूपाधि नेम।9। | ||
+ | (24) | ||
+ | |||
+ | स्अब चित चेति चित्रकूटहि चलु। | ||
+ | कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, बिलसत बढ़त मोह माया-मलु।। | ||
+ | भूमि बिलोकु राम-पद-अंकित, बन बिलोकु रघुबर - बिहारथलु।। | ||
+ | सैल-सृंग भवभंग -हेतु लखु, दलन कपट -पाखंड-दंभ-दलु। । | ||
+ | जहँ जनमे जग-जनक जगतपनि, बिधि-हरि-हर परिहरि प्रपंच छलु।। | ||
+ | सकृत प्रबेस करत जेहि आस्त्रम, बिगत-बिषाद भये परथ नलु।। | ||
+ | न करू बिलंब बिचारू चारूमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु। | ||
+ | पुत्र सेा जाइ जपहि, जो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु।। | ||
+ | रामनाम-जप जाग करत नित, मज्जत पय पावन पीवत जलु। | ||
+ | करिहैं राम भावतैा मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु।ं | ||
+ | कामदमनि कामता, कलपतरू से जुग-जुग जागत जगतीतलु। | ||
+ | तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतिति, प्रीति एकै बलु।। | ||
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14:27, 9 मार्च 2011 का अवतरण
(6)
जँाचिये गिरिजापति कासी।
जासु भवन अनिमादिक दासी।।
औढर-दानि द्रवत पुनि थोरें।
सकत न देखि दीन कर जोरें।।
सुख-संपति, मति-सुगति, सुहाई।
सकल सुलभ संकर-सेवकाई।।
गये सरन आरतिकै लीन्हें।
निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हें।।
तुलसिदास -जातक जस गावैं।
बिमल भगति रघुपतिकी पावै।
(7)
क्कस न दीनपर द्रवहु उमाबर।
दारून बिपति हरन करूनाकर।।
बेद-पुरान कहत उदार हर।
हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर।।
कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज।
होइ प्रसन्न दिन्हेहु सिव पद निज।।
जो गति अगम महामुनि गावहिं।
तव पुर कीट पतंगहु पावहिं।।
देहु काम-रिपु!राम-चरन-रति।
तुलसिदास प्रभु! हरहु भेद-मति।।
(8)
(9)
(10)
छेव देव
मोह-तम-तरणि, हर, रूद्र, शंकर, शरण, हरण-मम शोक, लोकाभिरामं।
बाल-शशि-भाल, सुविशाल लोचन-कमल, काम-सतकोटि-लावण्य-धामं।ं
कंबं-कुंदंेदु-कर्पूा -विग्रह रूचिर, तरूण-रवि-कोटि तनु तेज भ्राजै।
भस्म सर्वांग अर्धांग शैलत्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै।।
मौलिसंकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर-वारि हरि -चरण-पूतं।
श्रवण कुंडल गरल कंठ, करूणाकंद, सच्चिदानंद वंदेऽवधूतं।।
शूल-शायक, पिनाकासि-कर, शत्रु-वन-दहन इव धूमघ्वज, वृषभ-यानं।
व्याघ्र-गज-चर्म परिधान, विज्ञान-घन, सिद्ध-सुर-मुनि-मनुज-सेव्यमानं।।
तांडवित-नृत्यपर,डमरू डिंडिम प्रवर, अशुभ इव भाति कल्याणराशी।
महाकल्पांत ब्रह्मांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसीन काशी।।
तज्ञ, सर्वज्ञ, यज्ञेश, अच्युत, विभो, विश्व भवदंशसंभव पुरारी।
ब्रह्मेंन्द्र, चंद्रार्क, वरूणाग्नि, वसु मरूत,यम, अर्चि भवदंघ्रि सर्वाधिकारी।।
अकल,निरूपाधि, निर्गुण , निरंजन, ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं।
अखिलविग्रह, उग्ररूप, शिव, भूपसुर, सर्वगत, शर्व , सर्वोपकारं।।
ज्ञान-वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य शिव! सानुकूलं।
तदपि नरमूढ आरूढ संसार-पथ, भृमत भव, विमुख तव पादमूलं।।
नष्टमति, दुष्ट अति , कष्ट-रत, खेद-गत, दास तुलसी शंभु-शरण आया।
देहि कामारि! श्रीराम-पद-पंकजे भक्ति अनवरत गत-भेद-माया।।
(12)
सदा -
शंकरं, शंप्रदं, सज्जनानंददं, शैल-कन्या-वरं, परमरम्यं।
काम-मद-मोचनं, तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भावगम्यं।।
कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं, सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं।
सिंद्ध-सनकादि-योगीन्द्र-वृंदारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं।।
ब्रह्म-कुल-वल्लभं, सुलभ मति दुर्लभं, विकट-वेषं, विभुं, वेदपारं।
नौमि करूणाकरं, गरल-गंगाधरं, निर्मलं, निर्गुणं, निर्विकारं।।
लोकनाथं, शोक-शूल-निर्मूलिनं, शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं।
कालकालं, कलातीतमजरं, हरं, कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं।।
तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं, सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं।
प्रचुर-भव-भंजनं, प्रणत-जन-रंजनं, दास तुलसी शरण सानुकूलं।।
(13)
स्ेावहु सिव-चरन-सरोज-रेनु।
कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनु।।
कर्पूर-गौर, करूना-उदार।
संसार-सार, भुजगेन्द्र-हार।।
सुख-जन्मभूमि, महिमा अपार।
निर्गुन, गुननायक, निराकार।।
त्रयनयन, मयन-मर्दन महेस।
अहँकार-निहार-उदित दिनेस।।
बर बाल निसाकर मौलि भ्राज।
त्रैलोक-सोकहर प्रमभराज।।
जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल।
तिन्ह की गति कासीपति कृपाल।।
उपकारी कोऽपर हर-समान।
सुर-असुर जरत कृत गरल पान।।
बहु कल्प उपायन करि अनेक।
बिनु संभु-कृपा नहिं भव-बिबेक।।
बिग्यान-भवन, गिरिसुता-रमन।
कह तुलसिदास मम त्राससमन।।
(जारी)
(15)
दुसह दोषं-दुचा,दति, करू देवि दाया।
विश्व- मूलाऽसि, जन- सानुकूलाऽसि, कर शूलधारिणि महामूलमाया।1।
तडित गर्भांग सर्वंाग सुन्दर लसत, दिव्य पट भूषण विराजैं।
बालमृग-मंजु खंजन- विलोचनि, चन्द्रवदनि लखि कोटि रतिमार लाजैं।2।
रूप-सुख-शील-सीमाऽसि, भीमाऽसि,रामाऽसि, वामाऽसि वर बुद्धि बानी।
छमुख-हेरंब-अंबासि, जगदंबिके, शंभु-जायासि जय जय भवानी।3।
चंड-भुजदंड-खंडनि, बिहंडनि महिष मुंड -मद- भंग कर अंग तोरे।
शुंभु -निःशुंभ-कुम्भीश रण-केशरिणि, क्रोध-वारीश अरि -वृन्द बोरे।4।
निगम आगम-अगम गुर्वि! तव गुन-कथन, उर्विधर करत जेहि सहस जीहा।
देहि मा, मोहि पन प्रेम यह नेम निज, राम घनश्याम तुलसी पपीहा।5।
(16)
छीन, जय जय जगजननि देवि सुर-नर-मुनि-असुर-सेवि,
भुक्ति-मुक्ति-दायिनी, भय-हरणि कालिका।
मंगल-मुद-सिद्वि-सदनि, पर्वशर्वरीश-वदनि,
ताप-तिमिर-तरूण-तरणि-किरणमालिका।।
वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल-शेल -धनुषबाण,
धरणि, दलनि दानव-दल, रण-करालिका।
पूतना-पिंशाच-प्रेत-डाकिनि-शाकिनि-समेत,
भूत-ग्रह-बेताल-खग-मृगालि-जालिका।।
जय महेश-भामिनी, अनेक-रूप-नामिनी,
समस्त-लोक-स्वामिनी, हिमशैल-बालिका।
रघुपति-पद परम प्रेम, तुलसी यह अजल नेम,
देहु ह्वै प्रसन्न पाहि प्रणत-पालिका।।
(17)
जय जय भगीरथ नन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दनि,
नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जहनु बालिका।
बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,
त्रिपथ गासि, पुन्रूरासि, पाप-छालिका।1।
बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,
भँवर बर, बिभंगतर तरंग-मालिका।
पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,
भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका।2।
थ्नज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग,
कीट,जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुवंस-बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका।3।
(जारी)
(21)
ज्मुना ज्यों ज्यों लागी बाढ़न।
त्यों त्यों सुकृत-सुभट कलि भूपहिं, निदरि लगे बहु काढ़न।1।
ज्यों ज्यों जल मलीन त्यों त्यों जमगन मुख मलीन लहै आढ़ न
तुलसिदास जगदघ जवास ज्यों अनघमेघ लगे डाढ़न।2।
(22)
स्ेाइअ सहित सनेेह देह भरि,कामधेनु कलि कासी।
समनि सोक संताप पाप रूज, सकल-सुमंगल-रासी।1।
मरजादा चहुँ ओर चरनबर, सेवत सुरपुर-बासी।
तीरथ सब सुभ अंग रोम सिवलिंग अमित अविनासी।2।
अंतरऐन ऐन भल, थन फल, बच्छ बेद-बिस्वासी।
गलकंबल बरूना बिभा िजनु, लूम लसति, सरिताऽसि।3।
दंड पानि भैरव बिषान,तलरूचि-खलगन-भयदा-सी।
लोलदिनेस त्रिलोचन लोचन, करनघंट घंटा-सी।4।
मनिकर्निका बदन-ससि सुंदर, सुसरि-सुख सुखमा-सी।
स्वारथ परमारथ परिपूरन,पंचकोसि महिमा-सी।5।
बिस्वनाथ पालक कृपालुचित7 लालति नित गिरजा-सी।
सिद्धि, सची, सारद पूजहिं मन जोगवति रहति रमा-सी।
पंचााच्छरी प्रान7 मुद माधव7 गब्य सुपंचनदा-सी।
ब्रह्म-जीव-सम रामनाम जुग, आखर बिस्व बिकासी।7।
चारितु चरिति करम कुकरम करि, मरत जीवगन घासी।
लहत परम पद प्य पावन, जेहि चहत प्रपंच- उदासी।8।
कहत पुरान रची केसव निज कर-करतूति कला -सी।
तुलसी बसि हरपुरी राम जपु, जो भयो चहै सुपासी।9।
(23)
सब सोच-बिमोचन चित्रकूट। कलिहरन, करन कल्यान बूट।1।
सुचि अवनि सुहावनि आलबाल। कानन बिचित्र, बारी बिसाल।2।
मंदाकिनि-मालिनि सदा सींच। बर बारि, बिषम नर-नारि नीच।3।
साखा सुसृंग, भूरूह -सुपात। निरझर मधुबरद्व मृदु मलय बात।4।
सुक,पिक, मधुकर, मुनिबर बिहारू। साधन प्रसून फल चारि चारू।5।
भव-घोरघाम-हर सुखद छाँह। थप्यो थिर प्रभाव जानकी-नाह।6।
साधक-सुपथिक बड़े भाग पाइ। पावत अनेक अभिमत अघाइ।7।
रस एक, रहित-गुन-करम-काल। सिय राम लखन पालक कृपाल।8।
तुलसी जो राम पद चाहिय प्रेम। सेइय गिरि करि निरूपाधि नेम।9।
(24)
स्अब चित चेति चित्रकूटहि चलु।
कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, बिलसत बढ़त मोह माया-मलु।।
भूमि बिलोकु राम-पद-अंकित, बन बिलोकु रघुबर - बिहारथलु।।
सैल-सृंग भवभंग -हेतु लखु, दलन कपट -पाखंड-दंभ-दलु। ।
जहँ जनमे जग-जनक जगतपनि, बिधि-हरि-हर परिहरि प्रपंच छलु।।
सकृत प्रबेस करत जेहि आस्त्रम, बिगत-बिषाद भये परथ नलु।।
न करू बिलंब बिचारू चारूमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु।
पुत्र सेा जाइ जपहि, जो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु।।
रामनाम-जप जाग करत नित, मज्जत पय पावन पीवत जलु।
करिहैं राम भावतैा मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु।ं
कामदमनि कामता, कलपतरू से जुग-जुग जागत जगतीतलु।
तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतिति, प्रीति एकै बलु।।