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श्री हे हरि! यह प्रभु की अधिकाई।
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देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई।
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जो जग मृषा ताप -त्रय- अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।
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कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे।।
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सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै।
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कोटिहूँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै।।
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अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी।
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सम-संतोष-दया-बिबेेक तें, ब्यवहारी सुखकारी।।
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तुलसिदास सब बिधि प्रपन्च जग, जदपि झूठ श्रुति गावै।
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रधुपति- भगति, संत-संतति बिनु, को भव-त्रास नसावै।।
  
 
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12:37, 11 मार्च 2011 का अवतरण

पद 121 से 130 तक

(121)

श्री हे हरि! यह प्रभु की अधिकाई।

देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई।

जो जग मृषा ताप -त्रय- अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।

कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे।।

सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै।

 कोटिहूँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै।।

अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी।

सम-संतोष-दया-बिबेेक तें, ब्यवहारी सुखकारी।।

तुलसिदास सब बिधि प्रपन्च जग, जदपि झूठ श्रुति गावै।

रधुपति- भगति, संत-संतति बिनु, को भव-त्रास नसावै।।