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तुलसी प्रभु  
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श्री तो सों प्रभु जो पै कहूँ कोउ होतो।
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तो सहि निपट निरादर निसदिन, रटि लटि ऐसो घटि को तो।
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कृपा-सुधा-जलदान माँगियो कहौं से साँच निसोतो।
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स्वाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सेा पोतो।
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काल-करम-बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो।
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ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो।।
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जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो।
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तेरे राज राय दशरथ के, लयो बयो बिनु जोतो।।
  
 
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12:47, 11 मार्च 2011 का अवतरण

पद 161 से 170 तक

(161)
 
श्री तो सों प्रभु जो पै कहूँ कोउ होतो।
 
तो सहि निपट निरादर निसदिन, रटि लटि ऐसो घटि को तो।

कृपा-सुधा-जलदान माँगियो कहौं से साँच निसोतो।

स्वाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सेा पोतो।

काल-करम-बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो।

ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो।।
 
जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो।

तेरे राज राय दशरथ के, लयो बयो बिनु जोतो।।