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तुलसी प्रभु
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रामभद्र! मेहिं आपनो सोच है अरू नाहीं ।
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जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं।।
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नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ।
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तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ।।
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बडी़ गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं।
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कूर कुलसेवक कहत हौं  सेवककी नाईं।
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भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी।।
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बिगरे सेवक स्वान ज्यों  साहिब-सिर गारी।।
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असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै।
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दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझे।।
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बिरूदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौ।
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तुलसी प्रभुको परिहर्यो सरनागत सो हौ।।
  
 
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12:59, 11 मार्च 2011 का अवतरण

पद 141 से 150 तक

(150)

रामभद्र! मेहिं आपनो सोच है अरू नाहीं ।

जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं।।
 
नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ।
 
तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ।।

बडी़ गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं।

कूर कुलसेवक कहत हौं सेवककी नाईं।

भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी।।

बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी।।

असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै।

दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझे।।

बिरूदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौ।

तुलसी प्रभुको परिहर्यो सरनागत सो हौ।।