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"विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 27" के अवतरणों में अंतर

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श्री मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं,
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राम! रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं ।
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इनकी भगति कीन्हीं इनही को भाउ मैं।
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बूझियत गति, कछु कीन्हो तो  न काउ मैं। 
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जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी हू,
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श्री नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी।
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रूचिर रहनि रूचि मति गति तीयकी।।
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कुकृत -सुकृत बस सब ही सों संग पर्यो,
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परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।।
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मेरे भलेको गोसाईं! पेचको, न सोच -संक,
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हौहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी।।
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ग्यानहू-गिराके स्वामी, बाहर-अंतरजामी,
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यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी?
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तुलसी तिहारो, तुमहीं पै तुलसीके हित,
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राखि कहौं हौं तो जो पै ह्वहौं माखी घीयकी।।
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17:04, 12 मार्च 2011 का अवतरण

पद 261 से 270 तक

(261)

श्री मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं,
राम! रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं ।

निपट सयाने हौ कृपानिधान! कहा कहौं?
लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं।।

मानस मलीन, करतब कलिमल पीन
जीह हू न जप्यो नाम, बक्यो आउ-बाउ मैं।

कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो,
बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं।।

देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई,
प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं।

राग रोष द्वेष पोषे, गोगन समेत मन,
इनकी भगति कीन्हीं इनही को भाउ मैं।

आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें।
बूझियत गति, कछु कीन्हो तो न काउ मैं।

जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी हू,
 झूठे -साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं।।

(263)
श्री नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी।

रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो,
रूचिर रहनि रूचि मति गति तीयकी।।

कुकृत -सुकृत बस सब ही सों संग पर्यो,
परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।।

मेरे भलेको गोसाईं! पेचको, न सोच -संक,
हौहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी।।

ग्यानहू-गिराके स्वामी, बाहर-अंतरजामी,
यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी?

तुलसी तिहारो, तुमहीं पै तुलसीके हित,
राखि कहौं हौं तो जो पै ह्वहौं माखी घीयकी।।