भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दोहावली / तुलसीदास/ पृष्ठ 8" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=स…)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
[[Category:लम्बी रचना]]
 
[[Category:लम्बी रचना]]
 
{{KKPageNavigation
 
{{KKPageNavigation
|पीछे=सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 7
+
|पीछे=दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 7
 
|आगे=दोहावली / तुलसीदास/ पृष्ठ 9
 
|आगे=दोहावली / तुलसीदास/ पृष्ठ 9
 
|सारणी=दोहावली / तुलसीदास
 
|सारणी=दोहावली / तुलसीदास
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
 
<poem>
 
<poem>
 
'''दोहा संख्या 71 से 80'''
 
'''दोहा संख्या 71 से 80'''
 +
 +
 +
करिहौं कोसलनाथ तजि जबहिं दूसरी आस।
 +
जहाँ तहाँ दुख पाइहौं तबहीं तुलसीदास।।71।।
 +
 +
बिंधि न ईंधन पाइऐ सागर जुरै न नीर।
 +
परै उपास कुबेर घर जो बिपच्छ रघुबीर।72।
 +
 +
बरसा को गोबर भयों केा चहै को करै प्रीति।
 +
तुलसी तू अनुभवहि अब राम बिमुख की रीति।73।
 +
 +
सबहि समरथहि सुखद प्रिय अच्छम प्रिय हितकारिं।
 +
कबहुँ न काहुहि राम प्रिय तुलसी कहा बिचारि।।74।
 +
 +
तुलसी उद्यम करम जुग जब जेहि राम सुडीठि।
 +
होइ सुफल सोइ ताहि सब सनमुख प्रभु तन पीठि।75।
 +
 +
राम कामतरू परिहरत सेवत कलि तरू ठूँठ।
 +
स्वारथ परमारथ चहत सकल मनोरथ झूँठ।76।
 +
 +
निज दूषन गुन राम के समुझें तुलसीदास।
 +
होइ भलो कलिकाल हूँ उभय लोक अनयास।77।
 +
 +
कै तोहि लागहिं राम प्रिय कै तू प्रभु प्रिय होहि।
 +
दुइ में रूचै जो सुगम सो कीबे तुलसी तोहि।78।
 +
 +
तुलसी दुइ महँ एक ही खेल छाँडि छल खेलु।
 +
कै करू ममता राम सों कै ममता परहेलु।79।
 +
 +
निगम अगम साहेब सुगम राम साँचिली चाह।
 +
अंबु असन अवलोकिअत सुलभ सबै जग माँह।80।
  
 
</poem>
 
</poem>

18:59, 12 मार्च 2011 के समय का अवतरण

दोहा संख्या 71 से 80


करिहौं कोसलनाथ तजि जबहिं दूसरी आस।
जहाँ तहाँ दुख पाइहौं तबहीं तुलसीदास।।71।।

बिंधि न ईंधन पाइऐ सागर जुरै न नीर।
परै उपास कुबेर घर जो बिपच्छ रघुबीर।72।

बरसा को गोबर भयों केा चहै को करै प्रीति।
तुलसी तू अनुभवहि अब राम बिमुख की रीति।73।

सबहि समरथहि सुखद प्रिय अच्छम प्रिय हितकारिं।
कबहुँ न काहुहि राम प्रिय तुलसी कहा बिचारि।।74।

तुलसी उद्यम करम जुग जब जेहि राम सुडीठि।
होइ सुफल सोइ ताहि सब सनमुख प्रभु तन पीठि।75।

राम कामतरू परिहरत सेवत कलि तरू ठूँठ।
स्वारथ परमारथ चहत सकल मनोरथ झूँठ।76।

निज दूषन गुन राम के समुझें तुलसीदास।
होइ भलो कलिकाल हूँ उभय लोक अनयास।77।

कै तोहि लागहिं राम प्रिय कै तू प्रभु प्रिय होहि।
दुइ में रूचै जो सुगम सो कीबे तुलसी तोहि।78।

तुलसी दुइ महँ एक ही खेल छाँडि छल खेलु।
कै करू ममता राम सों कै ममता परहेलु।79।

निगम अगम साहेब सुगम राम साँचिली चाह।
अंबु असन अवलोकिअत सुलभ सबै जग माँह।80।