"अपनी क़िस्मत पे नाज़ करते, ग़ुरूर होता/ विनय प्रजापति 'नज़र'" के अवतरणों में अंतर
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अपनी क़िस्मत पे नाज़ करते, ग़ुरूर होता | अपनी क़िस्मत पे नाज़ करते, ग़ुरूर होता | ||
− | + | गर उनके लबों से हमारा मज़कूर<ref>चर्चा</ref> होता | |
− | + | गरचे मैंने छुपाया था राज़े-दिल तुम से | |
डर था तेरी निगाह में यह ना क़ुसूर होता | डर था तेरी निगाह में यह ना क़ुसूर होता | ||
− | + | कहना था पर न कहा इसमें ख़ता मेरी थी | |
− | + | कहता दर्दे-हिज्र<ref>विरह का दर्द</ref> भी जो ना मजबूर होता | |
− | क़िस्सा-ए-इश्क़ मुख़्तसर<ref>संक्षिप्त</ref> था बहुत | + | बद-क़िस्मती क़िस्सा-ए-इश्क़ मुख़्तसर<ref>संक्षिप्त</ref> था बहुत |
इक और मोड़ होता तो ज़रा मशहूर होता | इक और मोड़ होता तो ज़रा मशहूर होता | ||
− | तुमने मुझे देखकर जाने | + | तुमने मुझे देखकर जाने किस तरह सोचा होगा |
− | काश मैं | + | काश मैं शक्लो-सूरत<ref>सुंदरता</ref> में थोड़ा और होता |
− | क्या हम | + | ख़ुदाय, क्या हम न पाते अपनी मोहब्बत को |
− | + | अगर हमें अपनी वक़ालत का शऊर<ref>ढंग</ref> होता | |
− | हम-तुम मिल ही जाते | + | हम-तुम मिल ही जाते किसी मोड़ पर इक रोज़ |
− | जो इश्क़ में | + | जो इश्क़ में वस्लतो-क़ुर्ब</ref>मिलन और समीपता</ref> का दस्तूर होता |
− | हैं आलम में | + | हैं आलम में रंग, नये-पुराने, यादों के |
तुम भी होते परेशाँ तो मज़ा ज़रूर होता | तुम भी होते परेशाँ तो मज़ा ज़रूर होता | ||
− | तड़प-तड़प के मैंने यह ग़ज़ल लिखी है | + | बहुत तड़प-तड़प के मैंने यह ग़ज़ल लिखी है |
− | काश मेरी क़िस्मत में | + | काश मेरी क़िस्मत में जमाले-हूर<ref>परी जैसी सुन्दर मेहबूब</ref> होता |
पल-पल बिगड़ रहा है हाल तेरे बीमार का | पल-पल बिगड़ रहा है हाल तेरे बीमार का | ||
− | ऐ ‘नज़र’ काश | + | ऐ ‘नज़र’ काश आज वह मुझसे न दूर होता |
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19:33, 13 मार्च 2011 का अवतरण
लेखन वर्ष: 2004
अपनी क़िस्मत पे नाज़ करते, ग़ुरूर होता
गर उनके लबों से हमारा मज़कूर<ref>चर्चा</ref> होता
गरचे मैंने छुपाया था राज़े-दिल तुम से
डर था तेरी निगाह में यह ना क़ुसूर होता
कहना था पर न कहा इसमें ख़ता मेरी थी
कहता दर्दे-हिज्र<ref>विरह का दर्द</ref> भी जो ना मजबूर होता
बद-क़िस्मती क़िस्सा-ए-इश्क़ मुख़्तसर<ref>संक्षिप्त</ref> था बहुत
इक और मोड़ होता तो ज़रा मशहूर होता
तुमने मुझे देखकर जाने किस तरह सोचा होगा
काश मैं शक्लो-सूरत<ref>सुंदरता</ref> में थोड़ा और होता
ख़ुदाय, क्या हम न पाते अपनी मोहब्बत को
अगर हमें अपनी वक़ालत का शऊर<ref>ढंग</ref> होता
हम-तुम मिल ही जाते किसी मोड़ पर इक रोज़
जो इश्क़ में वस्लतो-क़ुर्ब</ref>मिलन और समीपता</ref> का दस्तूर होता
हैं आलम में रंग, नये-पुराने, यादों के
तुम भी होते परेशाँ तो मज़ा ज़रूर होता
बहुत तड़प-तड़प के मैंने यह ग़ज़ल लिखी है
काश मेरी क़िस्मत में जमाले-हूर<ref>परी जैसी सुन्दर मेहबूब</ref> होता
पल-पल बिगड़ रहा है हाल तेरे बीमार का
ऐ ‘नज़र’ काश आज वह मुझसे न दूर होता