भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"फागुन के दिन चार होली खेल मना रे / मीराबाई" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मीराबाई }} राग होरी सिन्दूरा फागुन के दिन चार होली ख...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=मीराबाई | |रचनाकार=मीराबाई | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKAnthologyHoli}} | |
राग होरी सिन्दूरा | राग होरी सिन्दूरा | ||
19:07, 15 मार्च 2011 के समय का अवतरण
राग होरी सिन्दूरा
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे॥
सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे॥
शब्दार्थ :- अणहद= अन्तरात्मा का अनाहत शब्द। सुर = स्वर। सार =उत्तम।
अम्बर =आकाश।
टिप्पणी :- इस पद में होली के व्याज से सहज समाधि का चित्र खेंचा गया है और ऐसी समाधि का साधन प्रेमपराभक्ति को बताया गया है।