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"कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 14" के अवतरणों में अंतर

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'''वन में '''
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(मारीचानुधावन)
  
प्रेम सों पीछें तिरीछें प्रियाहि चितै चितु दै चले लै चितु चोरैं।
 
  
स्याम समीर पसेउ लसै हुलसै ‘तुलसी’ छाबि सेा मन मोरेैं।
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पंचबटीं बर पर्नकुटी तर बैठे हैं रामु सुभायँ सुहाए।
  
लोचन लोल, चलैं भृकुटी कल काम कमानहु सेा तृनु तोरैं।
 
 
 
राजत राम कुरंगके संग निषंगु कसे धनुसों सरू जोरैं।26।
 
  
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सोहै प्रिया, प्रिय बंधु लसै ‘तलसी’ सब अंग घने छबि छाए।।
  
सर चारिक चारू बनाइ कसें कटि, पानि सरासनु सायकु लै।
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देखि मृगा मृगनैनी कहे प्रिय बेैन, ते प्रीतमके मन भाए।
  
बन खेलत रामु फिरैं मृगया, ‘तुलसी’ छबि सो बरनै किमि कै।।
 
  
अवलोकि अलौकिक रूपु मृगीं मृग चौकि चकैं, चितवैं चितु दै।।
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हेमकुरंगके संग सरासनु सायकु लै रघुनायकु धाए।।
  
न डगैं जियँ जानि जियँ सिलीमुख पंच धरैं रति नायकु है।27।
 
  
 
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(इति अरण्य काण्ड )
बिंधिके बासी उदासी तपी ब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
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गौतमतीय तरी ‘तुलसी’ सो कथा सुनि भे मुनिबृंद सुखारे।।
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ह्वैहैं  सिला सब चंदमखीं परसें पद मंजुल कंज तिहारे।
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कीन्ही भली रघुनायकजू! करूना करि काननको पगु धारें।28।
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12:30, 16 मार्च 2011 का अवतरण

 
(मारीचानुधावन)


पंचबटीं बर पर्नकुटी तर बैठे हैं रामु सुभायँ सुहाए।


सोहै प्रिया, प्रिय बंधु लसै ‘तलसी’ सब अंग घने छबि छाए।।

 
देखि मृगा मृगनैनी कहे प्रिय बेैन, ते प्रीतमके मन भाए।


हेमकुरंगके संग सरासनु सायकु लै रघुनायकु धाए।।


(इति अरण्य काण्ड )