"अक्षरों में खिले फूलों सी / जयकृष्ण राय तुषार" के अवतरणों में अंतर
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− | खिले फूलों सी | + | अक्षरों में |
− | + | खिले फूलों-सी | |
− | + | रोज़ साँसों में महकती है । | |
− | आकर मुंडेरों पर | + | ख़्वाब में |
− | एक चिड़िया सी चहकती | + | आकर मुंडेरों पर |
+ | एक चिड़िया-सी चहकती है । | ||
− | बिना जाने | + | बिना जाने |
− | और पहचाने | + | और पहचाने |
− | साथ गीतों के | + | साथ गीतों के सफ़र में है, |
− | दूर तक | + | दूर तक |
− | प्रतिबिम्ब कोई भी नहीं | + | प्रतिबिम्ब कोई भी नहीं |
− | मगर वो मेरी नजर में है, | + | मगर वो मेरी नजर में है, |
− | एक जंगल सा | + | एक जंगल-सा |
− | हमारा मन | + | हमारा मन |
− | वो पलाशों सी दहकती | + | वो पलाशों-सी दहकती है । |
− | + | बाँसुरी | |
− | मैं होठ पर अपने | + | मैं होठ पर अपने |
− | सुबह-शामों को सजाता | + | सुबह-शामों को सजाता हूँ, |
− | लोग मेरा | + | लोग मेरा |
− | स्वर समझते हैं | + | स्वर समझते हैं |
− | मैं उसी की धुन सुनाता | + | मैं उसी की धुन सुनाता हूँ, |
− | बादलों से | + | बादलों से |
− | जब घिरा हो मन | + | जब घिरा हो मन |
− | मोर पंखों सी थिरकती | + | मोर पंखों-सी थिरकती है । |
− | वो तितलियों | + | वो तितलियों |
− | और परियों सी | + | और परियों-सी |
− | उड़ा करती है फिजाओं में, | + | उड़ा करती है फिजाओं में, |
− | वो क्षितिज पर | + | वो क्षितिज पर |
− | इन्द्रधनुओं सी | + | इन्द्रधनुओं-सी |
− | और हम उसके छलाओ में, | + | और हम उसके छलाओ में, |
− | एक हीरे की | + | एक हीरे की |
− | कनी बनकर | + | कनी बनकर |
− | वो | + | वो अँधेरों में चमकती है । |
− | एक नीली | + | एक नीली |
− | पंखुरी पर फूल की | + | पंखुरी पर फूल की |
− | होठ थे किसके गुलाबी दिख रहे, | + | होठ थे किसके गुलाबी दिख रहे, |
− | एक मुश्किल सा | + | एक मुश्किल-सा |
− | प्रणय का गीत | + | प्रणय का गीत |
− | सिर्फ यादों के सहारे लिख रहे, | + | सिर्फ यादों के सहारे लिख रहे, |
− | डायरी पर | + | डायरी पर |
− | लिख रहा | + | लिख रहा हूँ मैं |
− | चूड़ियों सी वो खनकती | + | चूड़ियों-सी वो खनकती है । |
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01:36, 28 मार्च 2011 के समय का अवतरण
अक्षरों में
खिले फूलों-सी
रोज़ साँसों में महकती है ।
ख़्वाब में
आकर मुंडेरों पर
एक चिड़िया-सी चहकती है ।
बिना जाने
और पहचाने
साथ गीतों के सफ़र में है,
दूर तक
प्रतिबिम्ब कोई भी नहीं
मगर वो मेरी नजर में है,
एक जंगल-सा
हमारा मन
वो पलाशों-सी दहकती है ।
बाँसुरी
मैं होठ पर अपने
सुबह-शामों को सजाता हूँ,
लोग मेरा
स्वर समझते हैं
मैं उसी की धुन सुनाता हूँ,
बादलों से
जब घिरा हो मन
मोर पंखों-सी थिरकती है ।
वो तितलियों
और परियों-सी
उड़ा करती है फिजाओं में,
वो क्षितिज पर
इन्द्रधनुओं-सी
और हम उसके छलाओ में,
एक हीरे की
कनी बनकर
वो अँधेरों में चमकती है ।
एक नीली
पंखुरी पर फूल की
होठ थे किसके गुलाबी दिख रहे,
एक मुश्किल-सा
प्रणय का गीत
सिर्फ यादों के सहारे लिख रहे,
डायरी पर
लिख रहा हूँ मैं
चूड़ियों-सी वो खनकती है ।