|
|
| पंक्ति 2: |
पंक्ति 2: |
| | {{KKRachna | | {{KKRachna |
| | |रचनाकार=तुलसीदास | | |रचनाकार=तुलसीदास |
| − | }}
| + | }} |
| − | {{KKCatKavita}}
| + | [[Category:लम्बी रचना]] |
| − | [[Category:लम्बी रचना]] | + | * [[पद पद 71 से 80 तक / तुलसीदास/ पृष्ठ 1]] |
| − | {{KKPageNavigation
| + | * [[पद 71 से 80 तक / तुलसीदास/ पृष्ठ 2]] |
| − | |पीछे=विनयावली() / तुलसीदास / पृष्ठ 7
| + | * [[पद 71 से 80 तक/ तुलसीदास/ पृष्ठ 3]] |
| − | |आगे=विनयावली() / तुलसीदास / पृष्ठ 9
| + | * [[पद 71 से 80 तक/ तुलसीदास / पृष्ठ 4]] |
| − | |सारणी=विनयावली() / तुलसीदास
| + | * [[पद 71 से 80 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 5]] |
| − | }}
| + | |
| − | <poem>
| + | |
| − | '''पद 71 से 80 तक'''
| + | |
| − | | + | |
| − | (71)
| + | |
| − | | + | |
| − | ऐसेहू साहब की सेवा सों होत चोरू रे।
| + | |
| − | अपनी न बूझ, न कहै को राँडरोरू रे।।
| + | |
| − | मुनि-मन-अगम, सुगत माइ-बापु सों।
| + | |
| − | कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों।।
| + | |
| − | लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों ।
| + | |
| − | सब दिन सब देस, सबहिकें साथ सों।।
| + | |
| − | स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।
| + | |
| − | प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी।।
| + | |
| − | काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी।
| + | |
| − | सुमिरे सकुचि रूचि जोगवत जनकी ।
| + | |
| − | रीझे बस होत, खीजे देत निज धाम रे।
| + | |
| − | फलत सकल फल कामतरू नाम रे।।
| + | |
| − | बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे।
| + | |
| − | सोऊ तुलसी निवाज्यो राजराम रे।।
| + | |
| − | | + | |
| − | (72)
| + | |
| − | | + | |
| − | म्ेारो भलो कियो राम आपनी भलाई।
| + | |
| − | हौं तो साईं-द्रोही पै सेवक-हित साईं।।
| + | |
| − | रामसों बडो है कौन, मोसों कौन छोटेा।
| + | |
| − | राम सेा खरो हैं कौन, मोसो कौन खोटो।।
| + | |
| − | लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।
| + | |
| − | एतो बडो अपराध भौ न मन बावौं।।
| + | |
| − | पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यांे नीचो।
| + | |
| − | बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो।।
| + | |
| − | | + | |
| − | (74)
| + | |
| − | | + | |
| − | जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
| + | |
| − | जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।
| + | |
| − | करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
| + | |
| − | भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे।।
| + | |
| − | मोहमय कुहू-निशा बिसाल काल बिपुल सोयो,
| + | |
| − | खोयो से अनूप रूप सुपन जू परे।
| + | |
| − | अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
| + | |
| − | बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे।।
| + | |
| − | भागे मद-मान चोर जानि जातुधान,
| + | |
| − | काम-क्रेाध-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।
| + | |
| − | देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
| + | |
| − | ताप त्रिबिधि प्रेम-आप दूर ही करे।।
| + | |
| − | श्रवन सुनि गँभीर, जागे अति धीर बीर,
| + | |
| − | बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
| + | |
| − | तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
| + | |
| − | भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे।।
| + | |
| − | | + | |
| − | (76)
| + | |
| − | | + | |
| − | खेाटेा खरो रावरो हौं, रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,
| + | |
| − | जानो सब ही के मनकी।
| + | |
| − | करम-बचन-हिये, कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि,
| + | |
| − | पानी परे सनकी।।
| + | |
| − | दूसरो , भरोसो नहिं बासना उपासनाकी, बासव, बिरंचि,
| + | |
| − | सुर-नर-मुनिगनकी।।
| + | |
| − | स्वारथके साथी मेरे, हाथी स्वान लेवा देई, काहू तो न पीर,
| + | |
| − | रघुबीर!दीन जनकी।।
| + | |
| − | साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य, दुसह साँसति कीजै,
| + | |
| − | आगे ही या तनकी।
| + | |
| − | साँचे परौं, पाऊँ पान, पंचमें पन प्रमान,तुलसी चातक आस
| + | |
| − | राम स्यामघन की।।
| + | |
| − | | + | |
| − | (78)
| + | |
| − | | + | |
| − | देव-
| + | |
| − | दीनको दयालु, दानि दूसरो न कोऊ।
| + | |
| − | जाहि दीनता कहैां हौं देखौं दीन सोऊ।।
| + | |
| − | सुर, नर, मुनि, असुर, नाग, साहिब तौ घनेरे।
| + | |
| − | पै तौ लौं जौ लौं रावरे न नेकु नयन फेरे।।
| + | |
| − | त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी।
| + | |
| − | आदि-अंत-मध्य राम! सहबी तिहारी।।
| + | |
| − | तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।
| + | |
| − | सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो।।
| + | |
| − | पाहन-पसु बिटप- बिहँग अपने करि लीन्हे।
| + | |
| − | महाराज दसरथके! श्रंक राय कीन्हें।।
| + | |
| − | तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।
| + | |
| − | बारक कहिये कृपालु! त्ुलसिदास मेरो।।
| + | |
| − | | + | |
| − | </poem>
| + | |